मोदी-जिनपिंग मुलाकात: भारत और चीन को क्या हासिल होगा?
23 अक्टूबर को रूस के कज़ान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मुलाकात ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है. दोनों देशों के बीच 2020 में हुए गलवान संघर्ष के बाद यह पहली बार है कि इतने उच्च स्तर पर बातचीत हुई. यह मुलाकात ऐसे समय हुई जब वैश्विक स्तर पर तनाव, अमेरिका-रूस और चीन-ताइवान मुद्दों पर नजरें टिकी हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर भारत और चीन ने इस मुलाकात का फैसला क्यों लिया और दोनों देशों को इससे क्या हासिल होगा? आइए, इसके पीछे की रणनीति पर एक नजर डालते हैं.
भारत ने इन कारणों से लिया यह फैसला
मोदी की शांति-कूटनीति: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा से ही कूटनीति और बातचीत के जरिए समाधान पर जोर देते रहे हैं. चाहे रूस-यूक्रेन युद्ध हो या इजराइल-मध्य पूर्व का संघर्ष, मोदी ने शांति और संवाद की पहल की. 2020 के गलवान संघर्ष के बाद भी भारत ने चीन के साथ बातचीत जारी रखी, जिससे सीमा पर तनाव को कम किया जा सके. इस मुलाकात के जरिए मोदी ने फिर से साबित किया है कि वे केवल दूसरों को सलाह नहीं देते बल्कि खुद भी शांति-कूटनीति के सिद्धांत पर चलते हैं.
अमेरिकी दबाव को किया खारिज: भारत पर अमेरिका का यह दबाव था कि चीन के साथ युद्ध की स्थिति में रूस भारत का साथ नहीं देगा. मगर, चीन के साथ इस शांति पहल ने अमेरिका के इस नैरेटिव को कमजोर कर दिया. भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह अपनी विदेश नीति में स्वायत्तता और संतुलन बनाए रखेगा. किसी एक खेमे में जाने के बजाय अपनी रणनीति खुद तय करेगा.
भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता: विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कई बार स्पष्ट किया है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देता है. चाहे रूस हो या अमेरिका, भारत किसी एक देश के दबाव में आकर फैसला नहीं करता. इस मुलाकात से भारत ने यह संदेश दिया कि वह अपने पड़ोसी चीन के साथ संबंधों को सुधारने के लिए तैयार है, बिना किसी बाहरी दबाव के.
चीन एक जरूरी पड़ोसी: भारत और चीन के बीच करीब 3500 किलोमीटर लंबी सीमा है. 2020 के गलवान संघर्ष के बावजूद दोनों देशों का व्यापार 110 बिलियन डॉलर से अधिक का है. ऐसे में भारत ने यह फैसला किया कि चीन के साथ व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए संबंधों को सुधारा जाए, जिससे व्यापार और सुरक्षा दोनों क्षेत्रों में स्थिरता आए.
चीन की मजबूरी:
ताइवान पर भारत का विरोध न हो: चीन ताइवान पर कब्जा करना चाहता है और उसकी योजना 2025 तक यह कदम उठाने की है. शी जिनपिंग की मोदी से मुलाकात की एक वजह यह है कि भारत ताइवान मुद्दे पर विरोध न करे. भले ही भारत वन चाइना पॉलिसी को लेकर खुला समर्थन न दे लेकिन चीन चाहता है कि भारत ताइवान पर किसी भी प्रकार से विरोधी भूमिका में न आए.
अमेरिकी दबाव का सामना: अमेरिका लगातार चीन पर दबाव बढ़ा रहा है. विशेष रूप से ताइवान और दक्षिण चीन सागर को लेकर. इस बीच भारत को चीन के खिलाफ अमेरिकी रणनीति में एक महत्वपूर्ण भागीदार माना जा रहा है. शी जिनपिंग की भारत से इस दोस्ती के प्रयास का मकसद यह भी है कि भारत को अमेरिका के चीन विरोधी खेमे से दूर रखा जा सके.
क्वाड का मुकाबला: भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान का क्वाड गठबंधन चीन के लिए चिंता का विषय है. भले ही यह सैन्य गठबंधन न हो लेकिन चीन इसे एशियाई नाटो के रूप में देखता है. भारत के साथ दोस्ती बढ़ाकर चीन इस गठबंधन के प्रभाव को कमजोर करना चाहता है. खासकर भारत की सीमाओं से जुड़े मुद्दों पर.
बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन: बांग्लादेश की राजनीतिक स्थिति में हुए हालिया बदलावों ने चीन को अस्थिर कर दिया है. अगस्त में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोड़ना पड़ा और अमेरिका के साथ बांग्लादेश के मजबूत होते संबंध चीन के लिए खतरे की घंटी हैं. चीन भारत के साथ सहयोग बढ़ाकर बंगाल की खाड़ी में अमेरिकी प्रभाव को रोकना चाहता है.
भारत का बढ़ता वैश्विक प्रभाव: चाहे रूस-यूक्रेन युद्ध हो या इजराइल-मध्य पूर्व का संकट, भारत ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति और संतुलित दृष्टिकोण से दुनिया भर में अपनी साख बढ़ाई है. दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में भारत का कूटनीतिक और सामरिक कद बढ़ रहा है. चीन ने यह समझ लिया है कि भारत के साथ शत्रुता उसके हित में नहीं है.
मोदी और शी जिनपिंग की मुलाकात भारत और चीन के बीच संबंधों को एक नया मोड़ दे सकती है. दुनिया के दो सबसे बड़े देशों के बीच यह बातचीत न सिर्फ एशियाई बल्कि वैश्विक संतुलन को भी प्रभावित करेगी. चीन के तरफ से दोस्ती के बड़े हाथ को भारत जांच-परख और संभलकर थामना चाहेगा.