‘विलुप्त लोक एवं जनजातीय कला उत्थान महोत्सव’ में दिखी मध्‍य प्रदेश की आंचलिक झलक

भोपाल, 25 अक्‍टूबर (हि.स.) । संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार, उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, प्रयागराज एवं जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी के संयुक्त तत्वाधान में ‘विलुप्त लोक एवं जनजातीय कला उत्थान महोत्सव’ का आयोजन शुक्रवार को मध्य प्रदेश जनजातीय संग्रहालय में किया गया। इस एक दिवसीय महोत्सव की शुरुआत दीप प्रज्जवलन एवं कलाकारों के स्वागत से की। इस दौरान विधायक, दक्षिण पश्चिम भगवान दास सबनानी, निदेशक जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी डॉ. धर्मेंद्र पारे, जोन के सहायक निदेशक शील द्विवेदी एवं अन्य अधिकारी उपस्थित रहे।

महोत्सव में पूर्णिमा चतुर्वेदी एवं साथी, भोपाल द्वारा निमाड़ी लोकगायन की प्रस्तुति दी गई। उन्होंने शुभ प्रसंग में देवताओं का आगमन मन पग म बाँधी लिया घुँघरिया…बधावा स्वागत गीत तुम तो आवजो नरे अंबा बन का सोगिटा…राम जन्मोत्व की बधाई लुटाना जलम्या रे देखो राम अयोध्या नगरी म… मायरा गीत ( ममेरा गीत) म्हारा अंगणा म वाज जंगी ढोल…ननद भौजाई की होली टेसू फूल्यो न अतिभारा ननद बाई…बिदाई के बेटी को समय माता की दी शिक्षा–ठंडा लिमड़ा री छाया… जैसे कई निमाड़ी लोक गीत की प्रस्तुति दी।

अगले क्रम में अर्जुन बाघमारे एवं साथी, बैतूल द्वारा ढंडार नृत्य की प्रस्तुति दी। यह नृत्य गोंड समुदाय के द्वारा किया जाता है। इस नृत्य को ढोल टिमकी एवं डण्डे के द्वारा किया जाता है। यह नृत्य अखाड़ी गुरूपूर्णिमा के दिन पूजा अर्चना करके निकाला जाता है। फिर रात्रि के समय गाँव में ढंढार किया जाता है। दिपावली के समय पूजा अर्चना करके बंद कर दिया जाता है। ढंढार नृत्य पुरूष एवं महिलाओं के द्वारा किया जाता है। वेशभूषा धोती, कूर्ता, पगडी, जाकिट एवं हाथों में 1-1 फिट के डण्डे लेकर नृत्य किया जाता है। वादन ने ढोल, टिमकी, मंजीरा, एवं गोंडी गीत के माध्यम से किया जाता है।

महोत्सव में साधना उपाध्याय एवं साथी, खंडवा द्वारा गणगौर नृत्य की प्रस्तुति दी। गणगौर निमाड़ी जन-जीवन का गीति काव्य है। चैत्र दशमी से चैत्र सुदी तृतीया तक पूरे नौ दिनों तक चलने वाले इस गणगौर उत्सव का ऐसा एक भी कार्य नहीं, जो बिना गीत के हो। गणगौर के रथ सजाये जाते हैं, रथ दौड़ाये जाते हैं। इसी अवसर पर गणगौर नृत्य भी किया जाता है। झालरिया दिये जाते हैं। महिला और पुरूष रनुबाई और धणियर सूर्यदेव के रथों को सिर पर रखकर नाचते हैं। ढोल और थाली वाद्य गणगौर के केन्द्र होते हैं। गणगौर निमाड़ के साथ राजस्थान, गुजरात, मालवा में भी उतना ही लोकप्रिय है। मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय में प्रति रविवार आयोजित होने वाली इस गतिविधि में मध्यप्रदेश के पांच लोकांचलों एवं सात प्रमुख जनजातियों की बहुविध कला परंपराओं की प्रस्तुति के साथ ही देश के अन्य राज्यों के कला रूपों को देखने समझने का अवसर भी जनसामान्य को प्राप्त होगा।

अगली कड़ी में स्वाति उखले एवं साथी, उज्जैन द्वारा मटकी नृत्य की प्रस्तुति दी गई। मालवा में मटकी नाच का अपना अलग परम्परागत स्वरूप है। विभिन्न अवसरों पर मालवा के गाँव की महिलाएँ मटकी नाच करती हैं। ढोल या ढोलक को एक खास लय जो मटकी के नाम से जानी जाती है, उसकी थाप पर महिलाएं नृत्य करती हैं। प्रारम्भ में एक ही महिला नृत्य करती है, इसे झेला कहते हैं। महिलाएँ अपनी परम्परागत मालवी वेशभूष में चेहरे पर घूँघट डाले नृत्य करती हैं। नृत्य करने वाली पहले गीत की कड़ी उठाती है, फिर आसपास की महिलाएं समूह में कड़ी को दोहराती हैं। नृत्य में हाथ और पैरों में संचालन दर्शनीय होता है। नृत्य के केद्र में ढोल होता है। ढोल पर मटकी नृत्य की मुख्य ताल है। ढोल किमची और डण्डे से बजाया जाता जाता है। मटकी नाच को कहीं-कहीं आड़ा-खड़ा और रजवाड़ी नाच भी कहते हैं।

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