सौराष्ट्र तट पर भारतीय थलसेना, नौसेना और वायुसेना ने संयुक्त रूप से “अभ्यास त्रिशूल” के अंतिम चरण को सफलतापूर्वक पूरा किया है। यह न केवल भारत का अब तक का सबसे बड़ा त्रिसेना युद्धाभ्यास रहा, बल्कि “ऑपरेशन सिंदूर” के बाद पहली बार इतना व्यापक सैन्य एकीकरण देखने को मिला। हम आपको बता दें कि 30 अक्टूबर से 10 नवम्बर 2025 तक चले इस महा-अभ्यास में लगभग 50,000 सैनिकों, 20 से अधिक नौसैनिक युद्धपोतों, 40 से ज्यादा वायुसेना के विमानों और अत्याधुनिक स्वदेशी हथियार प्रणालियों ने भाग लिया। गुजरात, राजस्थान, कच्छ और उत्तर अरब सागर के तटीय क्षेत्र इस दौरान युद्धक्षेत्र में बदल गए थे। इस अभ्यास में ड्रोन युद्ध, साइबर एवं इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर, समुद्री लैंडिंग और नेटवर्क-सेंट्रिक युद्ध की रणनीतियों का परीक्षण किया गया।
देखा जाये तो दिल्ली से सौराष्ट्र तक इस युद्धाभ्यास की गूँज केवल भारत में ही नहीं, पाकिस्तान तक सुनाई दी। भारत भले इसे नियमित प्रशिक्षण कहे, पर इस स्तर का सैन्य एकीकरण स्पष्ट रूप से एक रणनीतिक संदेश है कि भारत अब हर मोर्चे पर निर्णायक जवाब देने को तैयार है।
इसे भी पढ़ें: सैनिकों की जाति देखने की राहुल गांधी की सोच उस ‘एकता’ को तोड़ने की साजिश है जो युद्ध के मैदान का सबसे बड़ा अस्त्र है
दरअसल, त्रिशूल के अंतर्गत संचालित ‘अभ्यास ब्रह्मशिरा’ और ‘मरु ज्वाला’ ने यह दिखाया कि भारत की थल, जल और नभ सेनाएँ किसी भी संभावित संघर्ष में एक साथ, एक ही युद्ध-डॉक्ट्रिन के तहत कार्य कर सकती हैं। राजस्थान के मरुस्थल से लेकर कच्छ की क्रीक तक, भारतीय सेना ने अपने स्ट्राइक कोर यानि सुदर्शन चक्र कोर की तीव्र मारक क्षमता का प्रदर्शन किया। लेफ्टिनेंट जनरल धीरज सेठ के नेतृत्व में “मरु ज्वाला” ने यह साबित किया कि भविष्य के किसी भी युद्ध में भारत के पास न केवल हथियारों की बढ़त है, बल्कि संयुक्त संचालन की बेमिसाल क्षमता भी है।
साथ ही ‘अभ्यास त्रिशूल’ की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसमें केवल पारंपरिक युद्ध की तैयारी नहीं हुई, बल्कि आधुनिक बहु-क्षेत्रीय (multi-domain) युद्ध की वास्तविकता को परखा गया। इलेक्ट्रॉनिक, साइबर और ड्रोन वारफेयर से लेकर कृत्रिम बुद्धिमत्ता-आधारित युद्ध नियंत्रण तक भारत ने अपने “Whole-of-Nation Approach” को मूर्त रूप दिया।
साथ ही नौसेना के कोलकाता-क्लास डेस्ट्रॉयर्स और निलगिरी-क्लास फ्रिगेट्स, वायुसेना के राफेल, मिराज 2000 और तेजस तथा थलसेना के T-90S, अर्जुन Mk II, और पिनाका रॉकेट सिस्टम ने मिलकर यह दिखाया कि तीनों सेनाओं की शक्ति अब एक समन्वित संरचना में ढल चुकी है। इन अभियानों के दौरान एक संयुक्त ज्वाइंट कंट्रोल सेंटर का संचालन किया गया, जिससे रियल-टाइम युद्ध-निर्देशन संभव हुआ। यह भारत के “थिएटर कमांड” ढाँचे की दिशा में निर्णायक कदम है।
देखा जाये तो इस अभ्यास की विशेषता यह रही कि इसमें केवल सैन्य एजेंसियाँ ही नहीं, बल्कि कोस्ट गार्ड, बीएसएफ और स्थानीय नागरिक प्रशासन भी शामिल रहा। यह वही “Military-Civil Fusion” है, जिसे अब भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का केंद्रीय तत्व बना रहा है। कच्छ सेक्टर में जब सेना ने स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर तटीय लैंडिंग और राहत-प्रतिक्रिया (response mechanism) का परीक्षण किया, तो यह एक ऐसे देश की तस्वीर उभर कर आई जो केवल युद्ध के लिए तैयार नहीं, बल्कि संकट प्रबंधन और नागरिक सुरक्षा के लिए भी सक्षम है।
देखा जाये तो त्रिशूल का सबसे सशक्त संदेश “Atmanirbharta in Defence” की दिशा में भारत की छलांग है। इस अभ्यास में इस्तेमाल हुए हथियारों और प्रणालियों का बड़ा हिस्सा देश में ही निर्मित था। ‘पिनाका’, ‘धनुष’, ‘प्रचंड’, ‘तेजस’ जैसे स्वदेशी प्लेटफॉर्मों का प्रदर्शन यह दर्शाता है कि भारत अब विदेशी आयातों का मोहताज नहीं है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) की नई प्रणालियों का फील्ड परीक्षण भी इसी दौरान किया गया।
वास्तव में, भारत का यह आत्मविश्वास केवल सैन्य ताकत से नहीं, बल्कि तकनीकी नवाचार और समन्वित नीति-निर्माण से उपजा है। “त्रिशूल” का मंत्र— “JAI” यानी Jointness, Atmanirbharta और Innovation in Action, अब भारत के रक्षा सिद्धांत का मूल बन चुका है।
साथ ही सौराष्ट्र और राजस्थान के मोर्चे पर यह महा-अभ्यास ऐसे समय हुआ जब पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था चरमरा चुकी है और उसका सैन्य नेतृत्व आंतरिक दबावों से जूझ रहा है। वहीं, चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर तनाव अभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। ऐसे में भारत का यह युद्धाभ्यास “द्वि-सीमीय रणनीतिक संतुलन” की तैयारी का संकेत देता है। इसके अलावा, यह अभ्यास हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में भारत की सागर नीति को भी सशक्त करता है। यह स्पष्ट करता है कि भारत अपने तटीय और समुद्री हितों की रक्षा के लिए न केवल सक्षम है बल्कि किसी भी उकसावे का त्वरित जवाब देने की तैयारी रखता है।
देखा जाये तो “त्रिशूल” केवल एक सैन्य अभ्यास नहीं, बल्कि नए भारत की रणनीतिक आत्मनिर्भरता का घोषणापत्र है। यह दर्शाता है कि भारतीय सशस्त्र बल अब केवल सीमाओं की रक्षा करने वाली संस्थाएँ नहीं, बल्कि एकीकृत राष्ट्रीय शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। थल, जल और नभ में फैली यह संगठित तैयारी उस युग की घोषणा है जिसमें भारत अब वैश्विक भू-राजनीति का निष्क्रिय दर्शक नहीं, बल्कि निर्णायक खिलाड़ी है।
इसके अलावा, जहाँ एक ओर “त्रिशूल” ने भारत की युद्ध-क्षमता और रणनीतिक एकता का प्रदर्शन किया, वहीं भारतीय थलसेना ने अरुणाचल प्रदेश के दुर्गम वनों में एक अभूतपूर्व फील्ड मेडिकल एक्सरसाइज़ आयोजित कर मानवीय मोर्चे पर अपनी दक्षता का परिचय दिया। यह अभ्यास अत्यंत कठिन भू-भागों— तीव्र ढलानों, घने जंगलों और सीमित निकासी मार्गों में एक स्वयं-संपोषित फील्ड मेडिकल पोस्ट स्थापित करने की वास्तविक परिस्थितियों की प्रतिकृति था। सेना के चिकित्सा दलों ने वहाँ सीमित संसाधनों के बीच उन्नत ट्रॉमा प्रबंधन, आपात पुनर्जीवन और घायलों की प्राथमिक श्रेणीकरण जैसी जटिल प्रक्रियाएँ निभाईं। इस पहल का उद्देश्य केवल युद्धकालीन चिकित्सा तत्परता का आकलन भर नहीं था, बल्कि यह दिखाना था कि भारतीय सेना हर स्थिति में, चाहे वह युद्ध हो या प्राकृतिक आपदा, नागरिकों और सैनिकों दोनों के लिए जीवनरक्षक सहायता प्रदान करने में सक्षम है। यह अभ्यास “Forever in the Line of Duty” की उस भावना को मूर्त रूप देता है, जो भारतीय सेना की पहचान बन चुकी है यानि कठिनतम परिस्थितियों में भी कर्तव्य, करुणा और कौशल का संगम।
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत की शक्ति केवल हथियारों में नहीं, बल्कि संगठन, नवाचार और आत्मविश्वास में निहित है। “त्रिशूल” ने यह साबित कर दिया है कि भारत की तीनों सेनाओं का यह त्रिशक्ति-संयोजन अब किसी भी संभावित युद्ध या संकट की स्थिति में निर्णायक बढ़त दिलाने में सक्षम है। कुल मिलाकर यह अभ्यास उस नए युग की दस्तक है जहाँ भारत की सुरक्षा नीति केवल “रक्षा” नहीं, बल्कि “निवारण” के दर्शन पर आधारित है और यही है आधुनिक भारत की सबसे बड़ी सामरिक उपलब्धि।

