उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने हत्या के एक मामले में दो लोगों के आजीवन कारावास को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि दोषसिद्धि मजिस्ट्रेट की बजाय पुलिस के समक्ष दिये गये कथित बयान पर आधारित थी, जो सबूत के रूप में अस्वीकार्य है।
उच्च न्यायालय ने नैनीताल जिले के हल्द्वानी में 15 साल पहले हुए उदय प्रकाश अग्रवाल उर्फ बबलू हत्याकांड में प्रकाश पाण्डेय उर्फ विकास त्यागी और उमेश सजवाण की आजीवन कारावास की सजा रद्द कर उन्हें बरी कर दिया।
उच्च न्यायालय ने हालांकिमामले में तीन सह आरोपियों घनानंद जोशी, सूरज वर्मा और चमन लोहारी को बरी किए जाने के अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा और इस संबंध में राज्य सरकार की अपील को खारिज कर दिया।
उच्च न्यायालय ने 22 सितंबर को यह फैसला सुनाया।
अधीनस्थ न्यायालय द्वारा सजा सुनाए जाने के खिलाफ पाण्डेय व सजवाण और मामले में तीन सह आरोपियों को बरी किए जाने के फैसले के विरुद्ध राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय में अपील दायर की थी।
अग्रवाल की 18 अप्रैल, 2010 को हत्या कर दी गयी थी और मामले में पांच लोगों को आरोपी बनाया गया था।
अधीनस्थ न्यायालय ने पाण्डेय व सजवाण को तत्कालीन भारतीय दंड संहिताकी धारा 302 और शस्त्र अधिनियम की धारा 25 के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई और जुर्माना भी लगाया।
अदालत ने हालांकि तीन अन्य आरोपियों को बरी कर दिया था।
न्यायमूर्ति रविंद्र मैठाणी और न्यायमूर्ति आलोक माहरा की खंडपीठ ने पाया कि अभियोजन पक्ष मामले को तर्कसम्मत संदेह से परे साबित करने में विफल रहा।
खंडपीठ ने कहा कि दोषसिद्धि मुख्यतः पुलिस के समक्ष दिये गये कथित कबूलनामे पर आधारित थी, जो सबूत के रूप में अस्वीकार्य थी।
पीठ ने कहा कि यह बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 30 के तहत सह आरोपी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किये जा सकते थे।
अदालत ने कहा कि यह बयान किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज नहीं किया गया था और इसलिए इसकी कानूनी वैधता नहीं थी।
अदालत ने यह भी कहा कि पांच सितंबर 2010 को रोडवेज बस स्टैंड के पास आरोपियों के पास से तमंचे और कारतूसों की कथित बरामदगी की पुष्टि किसी स्वतंत्र गवाह द्वारा नहीं की गयी थी।
पीठ ने कहा कि इसके अलावा बरामद हथियारों को अपराध से जोड़ने वाली फोरेंसिक की कोई रिपोर्ट भी नहीं थी।
उच्च न्यायालय ने कहा कि कथित प्रत्यक्षदर्शी भास्कर बृजवासी की गवाही भी भरोसे के योग्य और विश्वसनीय नहीं थी।
अदालत ने पाया कि घटना का गवाह होने का दावा करने के बावजूद उसने पुलिस को इसकी सूचना नहीं दी, मृतक की सहायता करने में विफल रहा और उसका बयान वर्षों बाद दर्ज किया गया।
उच्च न्यायालय ने जोर देते हुए कहा कि विश्वसनीय या परिस्थितिजन्य साक्ष्य के अभाव में केवल मकसद के आधार पर दोषसिद्धि कायम नहीं रखी जा सकती इसलिए आरोपियों को बरी किया जाता है।