Wednesday, November 19, 2025
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मुस्लिम समाज की कुरीति Talaq-e-Hasan पर Supreme Court ने दिखाई सख्ती, पूछा- सभ्य समाज ऐसी प्रथाएँ कैसे स्वीकार कर सकता है?

सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन की संवैधानिकता पर गंभीर सवाल उठाते हुए कहा है कि आधुनिक समाज में ऐसी प्रथाओं की अनुमति कैसे दी जा सकती है। हम आपको बता दें कि तलाक-ए-हसन वह प्रक्रिया है जिसमें मुस्लिम पुरुष हर महीने एक बार ‘तलाक’ कहकर तीन महीने में विवाह समाप्त कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने आज जो टिप्पणी की वह पत्रकार बेनज़ीर हीना की याचिका पर की, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया है कि उनके पति ने वकील के माध्यम से तलाक भेजा, स्वयं हस्ताक्षर तक नहीं किए और बाद में दूसरा विवाह कर लिया। अदालत ने इस प्रथा के दुरुपयोग, महिलाओं की गरिमा पर इसके प्रभाव और मुस्लिम समाज में चल रहे ऐसे ‘एकतरफ़ा व extrajudicial’ तलाकों की वैधता पर गहन चिंता जताई है। हम आपको यह भी बता दें कि इस मामले को उच्चतम न्यायालय तक ले जाने और इस कुप्रथा के खिलाफ देश में जनमत बनाने में उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अश्विनी उपाध्याय का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। तलाक-ए-हसन, तलाक-ए-अहसन, तलाक-ए-बाइन और तलाक-ए-किनाया के खिलाफ जो आवाज उन्होंने उठाई है उससे आज देश का सर्वोच्च न्यायालय भी सहमत दिखा।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा तलाक-ए-हसन पर उठाए गए सवाल केवल सिर्फ कानूनी बहस नहीं, बल्कि भारतीय समाज की चेतना को झकझोरने वाली टिप्पणी है। देखा जाये तो आठ वर्ष पहले तलाक-ए-बिद्दत यानी Instant तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया था। उसके बाद माना जा रहा था कि एकतरफ़ा तलाक की परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी, परंतु तलाक-ए-हसन जैसी प्रक्रियाएँ अभी भी मुस्लिम समाज की एक ऐसी कुरीति के रूप में जीवित हैं, जो न केवल महिलाओं के अधिकारों को चोट पहुँचाती हैं, बल्कि दांपत्य जीवन को भी अस्थिर बनाती हैं।

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तलाक-ए-हसन की मूल प्रक्रिया भले तीन महीने की हो, पर इसकी असल समस्या एकतरफ़ा अधिकार और उसका मनमाना उपयोग है। पति के तीन महीनों में तीन बार तलाक बोल देने मात्र से विवाह समाप्त हो जाता है; पत्नी को न तो सुनवाई का अवसर मिलता है और न प्रक्रिया पर कोई नियंत्रण। यह असंतुलन आधुनिक संवैधानिक मूल्यों— समानता, गरिमा और न्याय के विपरीत खड़ा हो जाता है।
बेनज़ीर हीना का मामला इसी असंतुलन की ज्वलंत मिसाल है। पति ने स्वयं सामने आने की बजाय वकील के माध्यम से तलाक का नोटिस भेजा, जिसमें उसके हस्ताक्षर भी नहीं थे। इस तरह का ‘एजेंट के माध्यम से तलाक’ न तो इस्लामी परंपराओं के अनुरूप है और न ही यह किसी सभ्य समाज की मर्यादा में स्वीकार्य हो सकता है। न्यायालय ने सही कहा कि यदि तलाक धार्मिक प्रथा के अनुसार होना है, तो प्रक्रियाओं का पालन भी ईमानदारी से होना चाहिए।
इस प्रकरण की सबसे पीड़ादायक परिणति यह रही कि बेनज़ीर अपनी वैवाहिक स्थिति सिद्ध न कर पाने के कारण अपने बच्चे का स्कूल में दाखिला भी नहीं करा सकीं। जिस समाज में एक शिक्षित, संसाधनयुक्त महिला को यह दुश्वारियाँ झेलनी पड़ रही हों, वहाँ दूरदराज़ के इलाकों में रहने वाली साधारण महिलाओं की स्थिति कितनी दयनीय होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
मुस्लिम समाज में तलाक की कुरीतियों का सबसे बड़ा संकट यह है कि इनका उपयोग अक्सर दहेज विवाद, घरेलू हिंसा या पारिवारिक कलह को ढकने के साधन के रूप में किया जाता है। पति बिना किसी जवाबदेही के, बिना किसी पारिवारिक परामर्श के, बिना किसी महिला क़ानूनी सुरक्षा के, शादी को समाप्त कर देता है और पत्नी तथा बच्चों को अनिश्चितता में छोड़ देता है। यह न तो शरीयत का वास्तविक उद्देश्य है और न ही इस्लामी न्याय की आत्मा। इस्लाम में तलाक अंतिम उपाय माना गया है और उससे पहले सुलह, परामर्श, मध्यस्थता की स्पष्ट व्यवस्था है— परंतु भारत में कई स्थानों पर ऐसे सिद्धांतों की अनदेखी कर मनमानी को ‘धर्म’ का नाम दे दिया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने बहुत उचित रूप से कहा कि ‘‘किसी सभ्य समाज में इस तरह की प्रथाओं की अनुमति नहीं दी जा सकती’’। न्यायालय ने यह भी संकेत दिया कि मामला पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेजा जा सकता है। इसका अर्थ है कि आने वाले समय में तलाक-ए-हसन की संवैधानिक वैधता पर गहन परीक्षण होगा। यदि यह प्रथा असमानता और महिलाओं के मूल अधिकारों का उल्लंघन करती पाई गई, तो भविष्य में इसे भी तीन तलाक की तरह प्रतिबंधित किया जाना संभव है।
देखा जाये तो यह बहस केवल मुस्लिम समाज की नहीं है, यह पूरे भारत की महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा का प्रश्न है। जब देश में सभी समुदायों की महिलाओं को समान अधिकार देने का संकल्प लिया गया है, तब ऐसी प्रथाओं पर पुनर्विचार ज़रूरी है जो किसी एक वर्ग की महिलाओं को धार्मिक कानूनों के नाम पर दोयम दर्जे का नागरिक बना देती हैं। धर्म की आड़ में अन्याय को बढ़ावा देना न तो न्यायसंगत है, न संवैधानिक, न नैतिक।
बेनज़ीर जैसी आवाज़ें बताती हैं कि परिवर्तन तभी संभव है जब पीड़ित महिला स्वयं साहस जुटाए, पर हर महिला अपने अधिकारों के लिए इतना संघर्ष नहीं कर सकती। यही कारण है कि क़ानून का दायित्व बनता है कि वह ऐसे अन्यायपूर्ण अभ्यासों को रोके और महिला को समान कानूनी सुरक्षा प्रदान करे। अब यह मुस्लिम समाज और क़ानून निर्माताओं दोनों की जिम्मेदारी है कि तलाक जैसी प्रक्रियाओं में सुधार करें और महिलाओं को एक मानवीय, न्यायपूर्ण और सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करें।
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