उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में आज फिर भारी वर्षा ने जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया, दर्जनों सड़कें बाधित हुईं, मकान बह गए और खेत खलिहान मलबे में दब गए। हर साल बरसात के मौसम में पर्वतीय राज्यों से इस तरह की दुखद खबरें आती हैं। सवाल यह है कि आखिर जो मॉनसून कभी जीवन और समृद्धि का आधार था, वही आज प्राकृतिक आपदा का पर्याय क्यों बन गया है?
दरअसल, इसके पीछे दोहरी सच्चाई छिपी है। एक ओर जलवायु परिवर्तन के चलते बारिश का पैटर्न असामान्य और असंतुलित हुआ है, कहीं महीनों तक सूखा, तो कहीं कुछ ही घंटों में पूरे महीने का पानी बरस जाना। दूसरी ओर, मानव की असीमित आकांक्षाओं और अवैज्ञानिक विकास मॉडल ने इन आपदाओं को और भयावह बना दिया है।
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पहाड़ों पर अंधाधुंध सड़क निर्माण, सुरंगें, जलविद्युत परियोजनाएं और होटल–रिज़ॉर्टों की भरमार ने धरती की प्राकृतिक संरचना को कमजोर किया है। जिस मिट्टी और चट्टान को सदियों से प्राकृतिक संतुलन ने संभाला था, उसे अब विस्फोटक मशीनों और कंक्रीट ने अस्थिर कर दिया है। नदियों के प्राकृतिक बहाव को रोककर उन्हें कृत्रिम दिशा दी गई है, जिससे पानी के उफान पर नियंत्रण संभव नहीं रह गया।
इसी का नतीजा है कि अब सामान्य बारिश भी ‘बादल फटने’ का रूप ले लेती है और छोटी-सी ढलान पर भारी भूस्खलन हो जाता है। यह केवल प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि मानवीय हस्तक्षेप से उपजी “मानव निर्मित त्रासदी” भी है।
जरूरत है कि हम हिमालयी राज्यों के लिए अलग दृष्टिकोण से विकास की परिभाषा गढ़ें। यहां निर्माण कार्य पर्यावरणीय संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर हों, स्थानीय पारंपरिक वास्तुकला और संसाधनों पर आधारित मॉडल अपनाए जाएं और अंधाधुंध पर्यटन को नियंत्रित किया जाए। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ठोस कदम उठाने जरूरी हैं।
मॉनसून को आपदा बनने से रोकना अब हमारे हाथ में है। अगर हमने प्रकृति के नियमों का सम्मान किया, तो यह बरसात फिर से जीवनदायिनी सिद्ध होगी। लेकिन अगर हमने लालच और लापरवाही जारी रखी, तो आने वाली पीढ़ियों को “मॉनसून का मौसम” सुनकर दहशत ही महसूस होगी।
देखा जाये तो इस वर्ष का मॉनसून उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्यों पर कहर बनकर टूटा है। भारी बारिश, बादल फटना और भूस्खलन की घटनाओं ने सैकड़ों घर उजाड़ दिए, सड़कें और पुल बह गए तथा सैकड़ों करोड़ की संपत्ति नष्ट हो गई। केवल संपत्ति ही नहीं, बल्कि अनगिनत जानें भी असमय काल के गाल में समा गईं। यह वार्षिक त्रासदी अब एक “नया सामान्य” बन चुकी है, और हर साल बरसात का मौसम स्थानीय निवासियों और यात्रियों के लिए दहशत का कारण बन जाता है। इसलिए जरूरत है कि हम विकास के मॉडल पर गंभीर पुनर्विचार करें। हिमालय को केवल खनन, कंक्रीट और निर्माण का केंद्र न मानकर इसे पारिस्थितिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र की तरह देखा जाए। पारंपरिक वास्तुकला, स्थानीय संसाधनों पर आधारित विकास और नियंत्रित पर्यटन ही स्थायी समाधान हो सकते हैं।
आज का सवाल यही है— क्या हम विकास के नाम पर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करते रहेंगे, या फिर सबक लेकर ऐसा रास्ता चुनेंगे जो मानव और प्रकृति के बीच संतुलन बनाए? अगर हमने समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियों को “मॉनसून” जीवनदायिनी नहीं बल्कि “विनाश का मौसम” ही लगेगा।