मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एक ऐसा पक्षपातपूर्ण और तुष्टिकरण वाला फैसला लिया था जिससे जम्मू-कश्मीर के युवाओं को तहसीलदार की नौकरी हासिल करने के लिए समान अवसर नहीं मिल पाते। इसलिए युवाओं और केंद्र शासित प्रदेश में मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने इस फैसले का जमकर विरोध किया और इसे केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट) में चुनौती दी गयी जिसने उमर अब्दुल्ला सरकार के फैसले को पलट दिया। हम आपको बता दें कि तहसीलदार पद के लिए उर्दू भाषा का ज्ञान अनिवार्य था जिससे जम्मू-कश्मीर के युवा बेहद परेशान थे क्योंकि खासतौर पर जम्मू क्षेत्र में बहुत कम छात्र स्कूल में उर्दू पढ़ते हैं।
हैरानी की बात यह है कि कश्मीरियों के अधिकारों की वकालत करने का दावा करने वाली नेशनल कांफ्रेंस खुद जम्मू-कश्मीर के लोगों के अधिकारों को छीनना चाहती थी। सिलसिलेवार तरीके से देखें तो जम्मू-कश्मीर में नायब तहसीलदार पदों के लिए उर्दू की अनिवार्यता का ज्ञान होने संबंधी निर्णय जम्मू एवं कश्मीर सेवा चयन भर्ती बोर्ड (JKSSB) की ओर से 9 जून 2025 को लिया गया था। यह निर्णय Revenue (Subordinate) Service Recruitment Rules, 2009 के तहत लिया गया था और इस नियम को 2009 की नेशनल कांफ्रेंस सरकार के दौरान ही बनाया गया था। लेकिन सालों से जो भेदभाव चला आ रहा था वह अब समाप्त हो गया है। अब केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (कैट) ने जम्मू-कश्मीर सेवा चयन भर्ती बोर्ड को निर्देश दिया है कि वह उन अभ्यर्थियों के आवेदन स्वीकार करे जिनके पास स्नातक की डिग्री हो और पांच आधिकारिक भाषाओं- हिंदी, कश्मीरी, अंग्रेजी, डोगरी और उर्दू में से किसी एक का ज्ञान हो।
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देखा जाये तो कैट का यह फैसला प्रशासनिक सुधार के लिहाज से तो स्वागत योग्य है ही साथ ही इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि यह उस पुरानी व्यवस्था की गलतियों को सुधारेगा, जिसे उमर अब्दुल्ला सरकार ने लागू किया था। हम आपको बता दें कि नायब तहसीलदार का पद प्रशासनिक और राजस्व प्रबंधन से जुड़ा होता है। इसका मूल कार्य कानून व्यवस्था, भूमि रिकॉर्ड और स्थानीय प्रशासनिक प्रक्रियाओं का संचालन है। यह कार्य प्रशासनिक दक्षता और समझदारी मांगता है, न कि उर्दू जैसी किसी विशेष भाषा का ज्ञान। देखा जाये तो किसी भाषा को अनिवार्य बनाना, प्रशासनिक पदों को भाषाई पहचान की राजनीति से जोड़ना था, जो एक लोकतांत्रिक और बहुभाषी राज्य के लिए घातक प्रवृत्ति है।
हम आपको याद दिला दें कि उमर अब्दुल्ला सरकार ने यह अनिवार्यता उस समय लागू की थी जब जम्मू संभाग और लद्दाख जैसे बड़े हिस्सों में उर्दू न के बराबर बोली या पढ़ी जाती थी। इन क्षेत्रों के योग्य युवा उम्मीदवार सिर्फ इसलिए पीछे छूट सकते थे क्योंकि उन्होंने स्कूल में उर्दू नहीं पढ़ी थी। देखा जाये तो एक भाषा के आधार पर अवसरों को सीमित करना संवैधानिक समानता के सिद्धांत के भी विरुद्ध था। इसमें कोई दो राय नहीं कि जब चयन का आधार भाषा होती है, तो वह प्रतिभा और योग्यता से अधिक प्राथमिकता पाने लगती है।
हम आपको याद दिला दें कि उमर अब्दुल्ला सरकार की ओर से उर्दू को “राज्य की आधिकारिक भाषा” बताकर उसे ज़रूरत से ज्यादा बढ़ावा देना, एक वर्ग विशेष को खुश करने और पहचान की राजनीति को मजबूत करने की कोशिश थी। लेकिन एक प्रशासनिक व्यवस्था भाषा आधारित नहीं, बल्कि क्षमता आधारित होनी चाहिए। अब जब यह अनिवार्यता समाप्त हो गयी है तो यकीनन सभी युवाओं को समान अवसर मिलेगा।
वैसे, इसमें कोई दो राय नहीं कि उमर अब्दुल्ला सरकार का नायब तहसीलदार के लिए उर्दू की अनिवार्यता वाला फैसला राजनीतिक और भाषाई पूर्वाग्रह से प्रेरित था। अब इस बाध्यता को हटाना जम्मू-कश्मीर के प्रशासनिक सुधार और युवाओं के अधिकारों की दिशा में एक सकारात्मक और आवश्यक कदम है। भविष्य में प्रशासनिक पदों को भाषा, धर्म या जाति के आधार पर नहीं, बल्कि कौशल और योग्यता के आधार पर ही तय होना चाहिए।