Monday, October 20, 2025
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Vishwakhabram: Xi Jinping ने Mao Zedong की तरह ग्रे सूट पहन कर कौन-सा प्रतीकात्मक संदेश दिया है?

बीजिंग के तियानआनमेन चौक पर आयोजित भव्य परेड में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की उपस्थिति जितनी राजनीतिक थी, उतनी ही प्रतीकात्मक भी। इस पूरे आयोजन में सबसे ज्यादा चर्चा उनके परिधान ने बटोरी। हम आपको बता दें कि माओ त्से तुंग शैली का ग्रे सूट, जो न केवल उनके सफेद हो रहे बालों से मेल खा रहा था, बल्कि बीते दशक में उनके द्वारा पहने गए पारंपरिक काले सूट से बिल्कुल अलग था। इस सूट का चुनाव मात्र फैशन नहीं था, बल्कि एक सुनियोजित संदेश था। माओ की वर्दी चीन में क्रांति, आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय गर्व का प्रतीक रही है। शी जिनपिंग, जो अब तीसरे कार्यकाल में हैं और खुद को माओ के बाद का सबसे शक्तिशाली नेता साबित करना चाहते हैं, उन्होंने इसी परंपरा को पुनर्जीवित कर जनता और पार्टी को यह संकेत दिया है कि वह न केवल वर्तमान का नेतृत्व कर रहे हैं, बल्कि अतीत की “क्रांतिकारी विरासत” के उत्तराधिकारी भी हैं।
यह परिधान उस राजनीतिक कथा को भी मजबूत करता है जिसे शी लगातार गढ़ते आ रहे हैं। शी कहते रहे हैं कि चीन की शक्ति पश्चिमी लोकतांत्रिक मूल्यों में नहीं, बल्कि अपनी समाजवादी परंपरा और राष्ट्रवादी गौरव में निहित है। इसके अलावा, आर्थिक सुस्ती और सामाजिक असंतोष के दौर में जनता को यह संदेश देना कि “हम माओ की राह पर हैं”, एक तरह से राष्ट्रवाद की चादर ओढ़ाकर असंतोष को दबाने की कोशिश है। साथ ही, इस पोशाक का चुनाव अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी एक संदेश देता है। जब पुतिन और किम जैसे नेता आधुनिक काले सूटों में दिखाई दिए, तब शी का ग्रे सूट यह जताता रहा कि चीन किसी पश्चिमी प्रारूप को अपनाने वाला नहीं है, बल्कि अपनी अलग पहचान के साथ खड़ा है। यह चीन की ‘सभ्यतागत आत्मनिर्भरता’ की अवधारणा को और सशक्त करता है।

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लेकिन यह प्रतीकवाद एक सवाल भी उठाता है: क्या केवल माओ की पोशाक पहन लेना शी को माओ जैसा ऐतिहासिक दर्जा दिला देगा? माओ का समय क्रांति और उथल-पुथल का था, जबकि आज का चीन वैश्विक व्यापार, तकनीक और कूटनीति के जाल में बंधा हुआ है। ऐसे में यह परिधान अतीत की गूँज तो है, परंतु वर्तमान की चुनौतियों के समाधान का विकल्प नहीं। इसलिए शी जिनपिंग का यह सूट जनता और विश्व के लिए एक स्पष्ट संकेत है कि वह स्वयं को चीन की निरंतरता, क्रांतिकारी विरासत और भविष्य की शक्ति के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह प्रतीकवाद वास्तविक आर्थिक और सामाजिक संकटों से ध्यान भटका पाएगा, या फिर इतिहास इस पोशाक को केवल एक राजनीतिक नाटकीयता के रूप में दर्ज करेगा।

वहीं बीजिंग के तियानआनमेन चौक पर आयोजित द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति की 80वीं वर्षगांठ की परेड को देखें तो यह महज़ एक औपचारिक आयोजन नहीं था। यह चीन की कूटनीतिक शक्ति, भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षा और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की व्यक्तिगत छवि का सुनियोजित प्रदर्शन था। हम आपको याद दिला दें कि दस वर्ष पहले 2015 में, शी ने अपने पूर्ववर्तियों को साथ खड़ा कर सम्मान और निरंतरता का संदेश दिया था। परंतु इस बार तस्वीर अलग थी— शी जिनपिंग के बगल में रूस के व्लादिमीर पुतिन और उत्तर कोरिया के किम जोंग उन मौजूद थे। यह दृश्य न केवल चीन के रणनीतिक गठजोड़ का प्रतीक था, बल्कि पश्चिमी देशों- विशेषकर अमेरिका के प्रति एक स्पष्ट संकेत भी था।
हम आपको बता दें कि शी जिनपिंग ने अपने शासनकाल में घरेलू विरोध को पूरी तरह समाप्त कर लिया है और अब वह तीसरे कार्यकाल में हैं। आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी, गिरती अचल संपत्ति कीमतें और ठहरे हुए वेतन से उत्पन्न असंतोष को वह राष्ट्रवाद और कूटनीतिक आक्रामकता से ढकने की कोशिश कर रहे हैं। यही कारण है कि हाल ही में एससीओ सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हुई मुलाकात और तिब्बत की यात्रा जैसे कदमों को व्यापक भू-राजनीतिक रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है।
दिलचस्प यह भी रहा कि शी और पुतिन की बातचीत का एक अंश सार्वजनिक हो गया जिसमें वह दीर्घायु और अंग प्रत्यारोपण की संभावनाओं पर चर्चा कर रहे थे। यह दृश्य प्रतीकात्मक था क्योंकि जहां एक ओर दुनिया में असुरक्षा और संघर्ष बढ़ रहा है, वहीं महाशक्तियों के नेता अपने दीर्घकालीन प्रभुत्व को लेकर आश्वस्त दिखना चाहते हैं। शी ने अपने सहयोगियों की भूमिकाएँ भी सीमित कर दी हैं। हम आपको बता दें कि प्रधानमंत्री ली क़ियांग को छोटे स्तर की मुलाकातों में व्यस्त रखा गया, जबकि अहम नेताओं से बातचीत पार्टी सचिवालय प्रमुख काई छी ने संभाली।
वैसे, यह भी सच है कि अमेरिका की नीतियाँ इस एकजुटता को आकार देने में बड़ी भूमिका निभा रही हैं। व्यापारिक प्रतिबंधों और दबावों ने भारत, रूस, ईरान और अन्य देशों को चीन की ओर झुकने पर मजबूर किया है। परेड के दौरान मोदी और पुतिन का हाथ थामे शी से बातचीत करना एक महत्वपूर्ण दृश्य था, जिसने वॉशिंगटन की असफलताओं को और उजागर कर दिया। देखा जाये तो चीन अब खुद को विकासशील देशों का भरोसेमंद साथी और अमेरिका का स्थिर विकल्प बताने की कोशिश कर रहा है। नए विकास बैंक और निवेश अवसरों का वादा उन देशों को आकर्षित कर सकता है, जिनकी युवा आबादी रोज़गार और बेहतर भविष्य की तलाश में है। परंतु चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं, भारत का चीन पर गहरा अविश्वास, क्षेत्रीय विवाद और सस्ते निर्यात पर मिलने वाली आलोचनाएँ आगे भी टकराव पैदा करेंगी।
देखा जाये तो यह स्पष्ट है कि शी जिनपिंग ने खुद को माओ के बाद का सबसे ताकतवर नेता साबित करने की ठानी है। 2027 में चौथे कार्यकाल की संभावनाओं को देखते हुए यह परेड और हालिया कूटनीतिक गतिविधियाँ केवल वर्तमान शक्ति प्रदर्शन नहीं, बल्कि उनके दीर्घकालीन राजनीतिक एजेंडे की झलक हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह प्रदर्शन वास्तव में नई चीन-नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था की नींव रख पाएगा, या यह केवल आर्थिक चुनौतियों से ध्यान हटाने की अस्थायी रणनीति भर साबित होगा।
बहरहाल, चीन में इस सप्ताह की सफल राजनयिक गतिविधियों से यह साफ दिखता है कि शी अभी भी कम्युनिस्ट पार्टी की शीर्ष राजनीति पर पूरी तरह नियंत्रण बनाए हुए हैं। शी 2027 में संभावित चौथे कार्यकाल की ओर देखते हुए सभी चुनौतियों को साधने का प्रयास कर रहे हैं ताकि खुद को माओ के बाद का सबसे ताकतवर चीनी नेता बना सकें।
-नीरज कुमार दुबे
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