राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु ने आज नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में छठे राष्ट्रीय जल पुरस्कार और जल संचय-जन भागीदारी पुरस्कार प्रदान किए। इस अवसर पर केंद्रीय जल शक्ति मंत्री सीआर पाटिल भी उपस्थित थे। राष्ट्रपति ने पुरस्कार समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि मानव सभ्यता की गाथा नदी घाटियों, समुद्र तटों और विभिन्न जल स्रोतों के आसपास बसे समूहों की कहानी है। उन्होंने कहा, ”हमारी परंपरा में नदियां, झीलें और अन्य जल स्रोत पूजनीय हैं। हमारे राष्ट्रीय गीत में बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा लिखा गया पहला शब्द “सुजलम्” है। इसका अर्थ है “प्रचुर जल संसाधनों से धन्य”। यह तथ्य हमारे देश के लिए जल की प्राथमिकता को दर्शाता है।”
राष्ट्रपति ने कहा, ”जल का कुशल उपयोग एक वैश्विक अनिवार्यता है। हमारे देश के लिए जल का कुशल उपयोग और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारी जनसंख्या की तुलना में हमारे जल संसाधन सीमित हैं। प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता एक बड़ी चुनौती है।” उन्होंने इस बात पर बल दिया कि जलवायु परिवर्तन जल चक्र को प्रभावित कर रहा है। ऐसे में, सरकार और जनता को जल उपलब्धता और जल सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए।
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राष्ट्रपति ने केंद्र और राज्य सरकारों, जिला प्रशासनों, ग्राम पंचायतों और नगर निकायों के स्तर पर जल संरक्षण और उसके सुसंगत प्रबंधन को प्राथमिकता देने पर बल दिया। राष्ट्रपति ने कहा कि जल का उपयोग करते समय, सभी को यह स्मरण करना चाहिए कि हम एक अत्यंत मूल्यवान संपत्ति का उपयोग कर रहे हैं।
देखा जाये तो राष्ट्रीय जल पुरस्कार-2024 के वितरण समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का संबोधन केवल एक औपचारिक भाषण नहीं था, बल्कि भारत के जल-चिंतन, जल-प्रबंधन और जल-भविष्य की दिशा तय करने वाली एक गंभीर राष्ट्रीय टिप्पणी थी। राष्ट्रपति ने बताया कि पिछले वर्ष शुरू की गई जल-संचय–जनभागीदारी (JSJB) पहल के अंतर्गत 35 लाख से अधिक भूजल पुनर्भरण संरचनाएँ तैयार की जा चुकी हैं। यह एक ऐसा आँकड़ा है जो न सिर्फ सरकारी इच्छाशक्ति बल्कि सामुदायिक भागीदारी के बढ़ते प्रभाव को भी दर्शाता है।
यह उपलब्धि ऐसे समय में सामने आई है जब जलवायु परिवर्तन के कारण जल चक्र असंतुलित हो रहा है, भूजल स्तर लगातार गिर रहा है और मीठे पानी की उपलब्धता जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में घटती जा रही है। राष्ट्रपति ने स्पष्ट कहा कि वैश्विक स्तर पर उपलब्ध मीठे जल का केवल एक प्रतिशत हिस्सा ही मानव उपयोग के योग्य है—और इसके सक्षम प्रबंधन की आवश्यकता अब ‘विकल्प’ नहीं बल्कि ‘अनिवार्यता’ है।
अपने संबोधन में राष्ट्रपति ने उद्योग जगत में उभर रही ‘चक्रीय जल अर्थव्यवस्था’ की अवधारणा को विशेष रूप से सराहा। कई औद्योगिक इकाइयों का शून्य द्रव उत्सर्जन (Zero Liquid Discharge) तक पहुँचना यह दर्शाता है कि जल संरक्षण केवल सरकारी योजनाओं का विषय नहीं रहा, बल्कि उद्योगों की व्यवहारिक रणनीति का हिस्सा बन चुका है। यह बदलाव स्वागतयोग्य है, क्योंकि औद्योगिक प्रदूषण लंबे समय से भारत के जल-संसाधनों पर गंभीर दवाब डाल रहा है।
दूसरी ओर, ग्रामीण जल-संरचना और पेयजल उपलब्धता के लिए लागू जल-जीवन मिशन के प्रभावों को भी राष्ट्रपति ने महत्वपूर्ण माना। 2019 तक जहाँ ग्रामीण घरों में नल से जल उपलब्धता 17 प्रतिशत से भी कम थी, वहीं आज यह आँकड़ा 81 प्रतिशत तक पहुँच गया है। यह केवल अवसंरचना का विस्तार नहीं, बल्कि जीवन-स्तर में वास्तविक सुधार का प्रमाण है। विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के लिए यह परिवर्तन जीवन-परिवर्तनकारी साबित हुआ है, जो अब प्रतिदिन पानी ढोने के श्रम से मुक्त होकर अपनी ऊर्जा को कृषि, शिक्षा और अन्य उत्पादक कार्यों में लगा पा रही हैं।
कृषि क्षेत्र में जल उपयोग, सबसे बड़ी चुनौती
भारत में 80 प्रतिशत मीठे पानी का उपयोग कृषि में होता है। इसलिए राष्ट्रपति द्वारा किसानों और उद्यमियों को कम पानी में अधिक उत्पादन के नवोन्मेषी तरीकों को अपनाने की सलाह समयोचित है। ड्रिप इरीगेशन, स्प्रिंकलर प्रणाली, वर्षा-आधारित कृषि और फसल विविधीकरण जैसे प्रयास अब आवश्यक हैं। जल-संचय–जनभागीदारी कार्यक्रम के तहत तैयार संरचनाएँ तभी पूर्ण फल दे सकेंगी जब कृषि क्षेत्र उन्हें समर्थ रूप से उपयोग कर सके।
जल: संस्कृति, चेतना और नागरिक सहभागिता
राष्ट्रपति का भाषण केवल नीतिगत विश्लेषण तक सीमित नहीं था; उसमें भारतीय संस्कृति के मूल में निहित जल-सम्मान का भी उल्लेख था। जनजातीय समुदायों द्वारा जल और प्रकृति के प्रति दिखाए जाने वाले आदर को उन्होंने जीवन-शैली में जल-संरक्षण के आदर्श मानक के रूप में प्रस्तुत किया। साथ ही उन्होंने ऋग्वेद और ‘वंदे मातरम’ के संदर्भ देते हुए यह रेखांकित किया कि भारतीय सभ्यता में जल को केवल संसाधन नहीं, बल्कि ‘अमृत’ के रूप में देखा गया है।
यह सांस्कृतिक दृष्टि आज के दौर में इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि आधुनिक उपभोक्तावादी जीवनशैली जल के प्रति संवेदनशील नहीं है। राष्ट्रपति ने नागरिकों, परिवारों, शैक्षणिक संस्थानों, NGOs और स्थानीय निकायों की सामूहिक जिम्मेदारी को रेखांकित करते हुए कहा कि जन-शक्ति के बिना जल-शक्ति का संचयन संभव नहीं।
आगे की राह
राष्ट्रपति का यह संबोधन एक महत्वपूर्ण संकेत देता है कि भारत अब जल-संकट की बात करने भर से आगे बढ़ चुका है; अब समाधान, नवाचार और सामूहिक नेतृत्व की बात हो रही है। 35 लाख पुनर्भरण संरचनाएँ, 81 प्रतिशत ग्रामीण जल-आपूर्ति, और उद्योगों में बढ़ता ZLD मॉडल, ये उपलब्धियाँ बताती हैं कि दिशा सही है। लेकिन चुनौतियाँ अभी भी बड़ी हैं। भूजल दोहन की अनियंत्रित प्रवृत्ति, असमान वर्षा, शहरी अपजल-प्रबंधन की कमियाँ, और कृषि क्षेत्र में सीमित तकनीकी अपनापन। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक है कि सरकारें योजनाएँ बनाएँ, उद्योग नवाचार करें और नागरिक जीवनशैली बदलें।
इसलिए राष्ट्रपति की यह टिप्पणी कि “जन-शक्ति के बल पर ही जल-शक्ति का संचयन संभव है”— भारत की जल-यात्रा का सार है। यदि यह विचार राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बन सके, तो ‘जल-समृद्ध भारत’ का लक्ष्य केवल नारा नहीं, बल्कि एक साकार भविष्य बन सकता है।
हम आपको बता दें कि राष्ट्रीय जल पुरस्कारों का उद्देश्य लोगों में जल के महत्व के बारे में जागरूकता पैदा करना और उन्हें जल उपयोग की सर्वोत्तम कार्य प्रणालियों को अपनाने के लिए प्रेरित करना है। जल संचय जन भागीदारी (जेएसजेबी) पहल सामुदायिक भागीदारी और संसाधनों के संयोजन के जरिए कृत्रिम भूजल पुनर्भरण के लिए विविध, मापनीय और अनुकरणीय मॉडलों के उद्भव में अग्रणी रही है।

