Sunday, December 21, 2025
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Aravalli की नई परिभाषा पर सवाल, वरिष्ठ वकील ने CJI से की पुनर्विचार की मांग: पर्यावरण संरक्षण पर खतरा?

वरिष्ठ अधिवक्ता हितेंद्र गांधी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर अरावली पहाड़ियों की परिभाषा को लेकर सुप्रीम कोर्ट के हालिया आदेश पर पुनर्विचार या स्पष्टता की मांग की है। उनका कहना है कि केवल ऊंचाई के आधार पर तय की गई परिभाषा उत्तर-पश्चिम भारत में पर्यावरण संरक्षण को कमजोर कर सकती है।
बता दें कि 20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने “इन री: अरावली हिल्स एंड रेंजेज की परिभाषा से जुड़े मुद्दे” मामले में एक महत्वपूर्ण आदेश पारित किया था। इस आदेश में अरावली क्षेत्र को एक पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील प्राकृतिक ढाल के रूप में मान्यता दी गई थी। अधिवक्ता गांधी ने अपने पत्र में इस कदम का स्वागत करते हुए कहा है कि अदालत द्वारा सतत खनन के लिए व्यापक प्रबंधन योजना तैयार करने के निर्देश, नई खनन लीज पर अंतरिम रोक और संचयी प्रभाव व वहन क्षमता पर जोर एक सकारात्मक पहल है।
हालांकि, उन्होंने अदालत द्वारा अपनाई गई कार्यात्मक परिभाषा पर चिंता जताई है। मौजूद जानकारी के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट के आदेश में उन भू-आकृतियों को अरावली पहाड़ियों के रूप में चिन्हित करने का आधार बनाया गया है, जिनकी स्थानीय ऊंचाई आसपास के क्षेत्र से 100 मीटर या उससे अधिक है। गांधी का तर्क है कि इस तरह की संकीर्ण परिभाषा अरावली के बड़े हिस्सों को संरक्षण से बाहर कर सकती है, जबकि वे पारिस्थितिक दृष्टि से उतने ही महत्वपूर्ण हैं।
गौरतलब है कि अरावली पर्वत श्रृंखला दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक मानी जाती है, जो समय के साथ काफी हद तक घिस चुकी है। अधिवक्ता गांधी ने कहा है कि इसकी पारिस्थितिक भूमिका केवल ऊंची चोटियों तक सीमित नहीं है। कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां, चट्टानी उभार, ढलान, जल पुनर्भरण क्षेत्र और आपसी संपर्क वाले भू-भाग भी भूजल संरक्षण, धूल और मरुस्थलीकरण को रोकने, जैव विविधता को बनाए रखने और दिल्ली-एनसीआर के सूक्ष्म जलवायु संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं।
उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि भारत में अक्सर पर्यावरण संरक्षण कानूनी वर्गीकरण और भूमि अभिलेखों से जुड़ा होता है। यदि परिभाषा बहुत सीमित रही, तो ऐसे “ग्रे ज़ोन” बन सकते हैं, जहां खनन, निर्माण और भूमि उपयोग परिवर्तन को रोकना मुश्किल हो जाएगा, और इसका नुकसान अपूरणीय हो सकता है।
पत्र में दिल्ली-एनसीआर की गंभीर वायु गुणवत्ता समस्या का भी उल्लेख किया गया है। गांधी ने कहा कि अरावली की रिज वनस्पतियां और उनसे जुड़े झाड़ीदार क्षेत्र धूल के प्रवाह को रोकने और प्रदूषक कणों को नियंत्रित करने में प्राकृतिक अवरोध का काम करते हैं। यदि इन क्षेत्रों को संरक्षण से बाहर रखा गया, तो वायु प्रदूषण, भूजल संकट, अत्यधिक गर्मी और वन्यजीव गलियारों के विखंडन जैसी समस्याएं और गहरी हो सकती हैं।
संवैधानिक आधार पर बात रखते हुए उन्होंने अनुच्छेद 21 के तहत स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार, अनुच्छेद 48A और 51A(g) में निहित पर्यावरण संरक्षण के दायित्वों का हवाला दिया है। साथ ही, उन्होंने एहतियाती सिद्धांत, पब्लिक ट्रस्ट सिद्धांत, सतत विकास और अंतर-पीढ़ी समानता जैसे स्थापित पर्यावरणीय सिद्धांतों को भी अपने तर्क का आधार बनाया है।
उन्होंने मुख्य न्यायाधीश से अनुरोध किया है कि इस मामले को उपयुक्त पीठ के समक्ष रखकर परिभाषा में संशोधन या स्पष्टता पर विचार किया जाए। उनके सुझावों में ऊंचाई के बजाय बहु-मानदंड आधारित दृष्टिकोण अपनाने, भू-आकृतिक, जलवैज्ञानिक और पारिस्थितिक पहलुओं को शामिल करने, उपयोग में लिए गए डेटा और नक्शों की सार्वजनिक जांच सुनिश्चित करने और अंतिम प्रबंधन योजना तक जुड़े क्षेत्रों की सुरक्षा जारी रखने की मांग शामिल है।
अधिवक्ता ने साफ किया कि यह प्रस्तुति पूरी तरह जनहित में और न्यायालय के प्रति सम्मान के साथ की गई है, ताकि अरावली के संरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट की मंशा ज़मीनी स्तर पर भी प्रभावी और सार्थक बनी रहे हैं।
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