इतिहास गवाह है कि विश्व राजनीति में ताकत केवल भाषणों से नहीं बनती, वह कारखानों में ढलती है, प्रयोगशालाओं में परखी जाती है और युद्धक प्रणालियों के रूप में राष्ट्र की संप्रभुता को ठोस आधार देती है। आज भारत ठीक उसी मोड़ पर खड़ा है। हम आपको बता दें कि ब्रह्मोस मिसाइलों के निर्यात की दिशा में भारत ने अपने कदम और बढ़ाये हैं और अब इसे वियतनाम और इंडोनेशिया को निर्यात किये जाने की तैयारी है।
देखा जाये तो भारत केवल व्यापारिक समझौते नहीं कर रहा, बल्कि एशिया की सामरिक धुरी को नए सिरे से गढ़ रहा है। एक तरफ दक्षिण चीन सागर में चीन की आक्रामक विस्तारवादी नीति से परेशान देश हैं, दूसरी तरफ भारत है, जो अब केवल रक्षा आयातक नहीं, बल्कि भरोसेमंद रक्षा निर्यातक के रूप में उभर रहा है। फिलीपींस के बाद वियतनाम और इंडोनेशिया को ब्रह्मोस मिसाइल देने की तैयारी इस बदलाव का सबसे प्रबल संकेत है। यह सौदा चार हजार करोड़ रुपये से अधिक का है, लेकिन इसका वास्तविक मूल्य इससे कहीं अधिक है। यह भारत की बदली हुई मानसिकता, बदली हुई क्षमता और बदली हुई रणनीतिक भूमिका का प्रमाण है।
रूस की सहमति इस पूरे घटनाक्रम को और भी महत्वपूर्ण बनाती है। भारत-रूस संयुक्त उद्यम द्वारा विकसित ब्रह्मोस पर मॉस्को की हरी झंडी यह संकेत देती है कि भारत अब केवल लाइसेंस पर हथियार बनाने वाला देश नहीं, बल्कि स्वतंत्र निर्णय लेने वाली शक्ति है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उनके रूसी समकक्ष Andrei Belousov के बीच हुई बातचीत के बाद नो ऑब्जेक्शन की औपचारिक मुहर बस समय की बात है।
यह कोई संयोग नहीं कि वियतनाम, इंडोनेशिया और फिलीपींस जैसे देश भारत की ओर देख रहे हैं। ये सभी चीन के दबाव, समुद्री घुसपैठ और जबरदस्ती की रणनीति से त्रस्त हैं। ब्रह्मोस जैसी सुपरसोनिक क्रूज मिसाइलें केवल हथियार नहीं, बल्कि राजनीतिक संदेश हैं। माच 2.8 की रफ्तार से वार करने वाली यह मिसाइल दुश्मन को सोचने का मौका भी नहीं देती। जब भारत इसे निर्यात करता है, तो वह केवल मिसाइल नहीं देता, वह रणनीतिक संतुलन देता है।
हम आपको बता दें कि भारत के लिए ब्रह्मोस की कहानी केवल विदेश नीति तक सीमित नहीं है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सुखोई 30 एमकेआई से दागी गई ब्रह्मोस मिसाइलों ने यह साबित कर दिया था कि यह प्रणाली केवल शो पीस नहीं, बल्कि युद्ध में परखी हुई मारक क्षमता है। पाकिस्तान के भीतर गहरे लक्ष्यों पर सटीक प्रहार ने दुनिया को यह दिखा दिया था कि भारत की पारंपरिक शक्ति अब निर्णायक हो चुकी है।
हम आपको बता दें कि भारतीय थलसेना, नौसेना और वायुसेना ने अब तक करीब साठ हजार करोड़ रुपये के अनुबंध ब्रह्मोस एयरोस्पेस के साथ किए हैं। यह मिसाइल भारत की प्राथमिक गैर परमाणु स्ट्राइक क्षमता बन चुकी है। 450 किलोमीटर की रेंज और भविष्य में 800 किलोमीटर तक जाने की योजना भारत को एक नई श्रेणी में खड़ा कर देती है।
इसके साथ ही आकाश एयर डिफेंस सिस्टम और पिनाका मल्टी बैरल रॉकेट सिस्टम जैसे स्वदेशी हथियारों का निर्यात भी भारत की बदलती पहचान को मजबूत करता है। आर्मेनिया जैसे देश आज भारत के प्रमुख ग्राहक हैं। देखा जाये तो यह वही भारत है जो कभी बंदूक की गोलियों तक के लिए विदेश पर निर्भर था।
हम आपको यह भी बता दें कि अगर नई दिल्ली रणनीति गढ़ रही है, तो लखनऊ उसे जमीन पर उतार रहा है। उत्तर प्रदेश डिफेंस इंडस्ट्रियल कॉरिडोर का दिल बन चुका ब्रह्मोस एयरोस्पेस इंटीग्रेशन एंड टेस्टिंग फैसिलिटी केवल एक फैक्ट्री नहीं, बल्कि भारत की औद्योगिक और सामरिक क्रांति का प्रतीक है। लखनऊ कानपुर हाईवे पर फैला दो सौ एकड़ का यह परिसर दिखाता है कि रक्षा उत्पादन अब केवल तटीय या पारंपरिक औद्योगिक शहरों की बपौती नहीं रहा। यहां विशाल इंटीग्रेशन हॉल हैं, बूस्टर प्रोडक्शन ब्लॉक है, वारहेड मेटिंग फैसिलिटी है और हाई स्पीड स्लेड ट्रैक है। यह सब कुछ उस राज्य में हो रहा है जिसे कभी केवल कृषि और श्रम के लिए जाना जाता था।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मौजूदगी में जब पहली खेप भारतीय सशस्त्र बलों के लिए रवाना हुई, तो यह केवल मिसाइलों की डिलीवरी नहीं थी, यह उत्तर प्रदेश की छवि का पुनर्जन्म था। यह घोषणा थी कि अब यह राज्य भी राष्ट्रीय सुरक्षा का निर्माणकर्ता है। देखा जाये तो ब्रह्मोस मिसाइल एक अकेला उत्पाद नहीं है। यह दो सौ से अधिक भारतीय उद्योगों, निजी और सार्वजनिक कंपनियों तथा एमएसएमई का संयुक्त प्रयास है। टाइटेनियम कास्टिंग से लेकर एवियोनिक्स तक, सॉलिड बूस्टर से लेकर एयरफ्रेम तक, स्वदेशी कंटेंट अब तिरासी प्रतिशत से अधिक हो चुका है और 2026 तक पचासी प्रतिशत तक पहुंचने का लक्ष्य है।
लखनऊ यूनिट में पांच सौ लोग काम कर रहे हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष रोजगार की संख्या हजारों में है। यह वही रक्षा उत्पादन है जो केवल हथियार नहीं बनाता, बल्कि कौशल, तकनीक और आत्मविश्वास पैदा करता है। यहां कोई स्थानीय कोटा नहीं है, केवल मेरिट है। यह संदेश भी उतना ही आक्रामक है जितनी मिसाइल की मारक क्षमता।
लखनऊ फैसिलिटी का असली भविष्य ब्रह्मोस एनजी में छिपा है। हल्की, छोटी और ज्यादा संख्या में तैनात की जा सकने वाली यह मिसाइल युद्ध की प्रकृति बदल देगी। सुखोई 30 पर एक के बजाय कई मिसाइलें, जहाजों और लांचरों पर दोगुनी मारक क्षमता, यह सब भारत को लागत में कमी और प्रभाव में वृद्धि का लाभ देगा। यह वही सोच है जो आत्मनिर्भर भारत को केवल नारा नहीं, बल्कि रणनीति बनाती है।
देखा जाये तो भारत आज भी दुनिया के शीर्ष हथियार आयातकों में है, यह सच्चाई है। लेकिन उससे भी बड़ी सच्चाई यह है कि भारत अब हथियार बेचने वाले देशों की पंक्ति में खड़ा हो चुका है। चौबीस हजार करोड़ रुपये से अधिक का रक्षा निर्यात, अस्सी से अधिक देशों तक पहुंच और लगातार बढ़ती मांग यह साबित करती है कि यह यात्रा अब और तेजी से आगे बढ़ने वाली है। ब्रह्मोस का वियतनाम और इंडोनेशिया जाना केवल सौदा नहीं, यह चीन को दिया गया स्पष्ट संदेश भी है कि एशिया में संतुलन अब एकतरफा नहीं रहेगा। वहीं, लखनऊ से निकलती मिसाइलें केवल सीमाओं की रक्षा नहीं करेंगी, वह भारत की औद्योगिक आत्मा, तकनीकी क्षमता और राजनीतिक आत्मविश्वास को भी आगे ले जाएंगी।
बहरहाल, आज जब मिसाइलें उत्तर प्रदेश की धरती से निकल कर दक्षिण चीन सागर तक पहुंचने की तैयारी में हैं, तब यह साफ है कि भारत की कहानी बदल चुकी है। अब भारत रक्षा बाजार में ग्राहक नहीं, बल्कि विक्रेता है। यही बदलाव आने वाले दशकों की वैश्विक राजनीति में भारत को निर्णायक स्थान दिलाएगा।

