मॉर्डन टेररिज्म 11 सितंबर, 2001 को वेस्टर्न वर्ल्ड में अचानक नहीं पनपा। बल्कि यह न्यूयॉर्क, लंदन या पेरिस पहुँचने से बहुत पहले ही दुनिया के अन्य हिस्सों में धीरे-धीरे, सुनियोजित तरीके से अपने पांव पसार चुका था। । इन शुरुआती मोर्चों में भारत की एक अलग पहचान है। अपनी स्वतंत्रता के क्षण से ही, भारत उन तरीकों का परीक्षण स्थल बन गया जिन्होंने बाद में वैश्विक आतंकवाद को परिभाषित किया। जब पश्चिमी देशों का बड़ा हिस्सा दक्षिण एशिया की हिंसा को केवल स्थानीय अशांति, जातीय टकराव या औपनिवेशिक दौर के बाद की अव्यवस्था मान रहा था, तब भारत एक ऐसे नए और खतरनाक युद्ध से जूझ रहा था जो न किसी सीमा को मानता था, न किसी नियम को—एक ऐसा युद्ध जो आम नागरिकों को निशाना बनाता था और जिम्मेदारी से इनकार की आड़ में फल-फूल रहा था। 1970 के दशक में विमान अपहरण, 1980 के दशक में विचारधारा और विदेशी समर्थन से पनपी उग्रवाद की लहर, 1990 के दशक में सामूहिक हत्याओं वाले विस्फोट और 2000 के दशक में लाइव मीडिया के ज़रिये चलाए गए आतंकी हमले—ये अलग-अलग घटनाएँ नहीं थीं, बल्कि एक लगातार विकसित होते आतंकवादी ढाँचे के चरण थे। हर दौर में ऐसी तकनीकों को निखारा गया, जिन्हें बाद में सीमाओं और महाद्वीपों के पार फैलाया गया। इस पूरी प्रक्रिया में भारत ने लगभग अकेले रहकर इन झटकों को झेला, भारी मानवीय और संस्थागत कीमत चुकाई, जबकि उसकी चेतावनियों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने लंबे समय तक नज़रअंदाज़ या हल्के में लिया। सच यह है कि भारत अपनी मर्ज़ी से नहीं, बल्कि परिस्थितियों के चलते आधुनिक आतंकवाद की पहली प्रयोगशाला बना—और यह इतिहास इसलिए अहम है क्योंकि चेतावनियाँ अक्सर तब तक अनसुनी रहती हैं, जब तक खतरा अपने दरवाज़े पर न आ खड़ा हो।
विमान हाईजैक का युग और बंधकों का वेपन के रूप में प्रयोग
9/11 की घटना से बहुत पहले, जब विमानन सुरक्षा वैश्विक प्राथमिकता बन गई, भारत पहले ही कई बार विमान अपहरण की घटनाओं का सामना कर चुका था। ये घटनाएं हताशा में की गई आकस्मिक घटनाएं नहीं थीं; ये सुनियोजित हमले थे व जिनका मकसद रियायतें हासिल करना, मीडिया का ध्यान आकर्षित करना और सरकार को चैलेंज करना था। 1999 में हुआ IC-814 विमान अपहरण एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसमें अंतरराष्ट्रीय मार्ग, वास्तविक समय में मीडिया का दबाव और राजनयिक दबाव का संयोजन था। 1990 का दशक ग्रामीण विद्रोह से शहरी आतंकी युद्ध की ओर शिफ्ट कर चुका था। 1993 के मुंबई बम धमाकों ने दिखाया कि आतंकवाद किस प्रकार घातक हो सकता है।
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30 साल पहले मुंबई पर हुआ था सबसे बड़ा आतंकी हमला
आतंक के उस पहले शुक्रवार के दिन मुंबई और भारत पर पहली बार एक बड़ा आर्गनाइड और योजनाबद्ध हमला हुआ था। 12 मार्च 1993, शुक्रवार का दिन उस वक्त मुंबई शहर बॉम्बे के नाम से जाना जाता था। हवा में कुछ तल्खी पहले से थी क्योंकि 3 महीने पहले इस शहर ने दंगे का दंश झेला था। दोपहर के 1:30 हो रहे थे। शहर में 12 अलग-अलग जगह पर बम धमाके हुए। हमले की शुरुआत स्टॉक एक्सचेंज में हुए धमाके के साथ हुई। इसके साथ ही मायानगरी की रफ्तार पर ब्रेक लग गया। स्टॉक एक्सचेंज की 28 मंजिला इमारत की पार्किंग में आरडीएक्स से लदी एक कार में टाइमर के जरिए धमाका हुआ। इसमें करीब 84 बेगुनाह लोगों की जान गई और 200 से ज्यादा जख्मी हुए। इसके बाद तो धमाकों का सिलसिला ही शुरू हो गया। नरथी नाथ स्ट्रीट पर एक ट्रक में 2:15 मिनट पर दूसरा धमाका हुआ, जिसमें 5 लोगों की मौत हुई। तीसरा ब्लास्ट शिवसेना भवन के पास लकी पेट्रोल पंप पर हुआ। इसमें चार लोगों की मौत हुई और 50 लोग गंभीर रूप से घायल हुए। अब तक ये साफ हो चुका था कि मुंबई अब बड़े आतंकी हमले की चपेट में है। फिर नरीमन प्वाइंट के पास एयर इंडिया की बिल्डिंग को निशाना बनाया गया। इसमें 20 लोग मारे गए और 80 से ज्याद
दाऊद इब्राहिम ने दिया अंजाम
राकेश मारिया की किताब “लेट मी से नाऊ” के अनुसार 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद मुंबई के कुछ मुस्लिम इसका बदला लेना चाहते थे। जिसके लिए दुबई में बैठे अंडरवल्ड डॉन दाऊद से मदद मांगी गई। पहले तो दाऊद ने साफ मना कर दिया। लेकिन कहा जाता है कि कुछ मुस्लिम महिलाओं ने दाऊद को चूड़ियां लानत के तौर पर भेजी। ये बात दाऊद को लग गई और उसने टाइगर मेमन और मोहम्मद दौसा के साथ मिलकर मुंबई को दहलाने की प्लानिंग रच डाली।
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