इज़रायल ने गाज़ा सिटी पर ज़मीनी सैन्य अभियान शुरू कर दिया है। यह वही शहर है जिसे प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने हमास का सबसे बड़ा गढ़ बताया था और जिसके कब्ज़े का आदेश उन्होंने पिछले महीने दिया था। रिपोर्टों के मुताबिक लगातार बमबारी और नाकेबंदी के बीच अब इज़रायली सेना शहर के भीतर प्रवेश कर रही है। इस बीच, रक्षा मंत्री इज़रायल काट्ज़ का बयान— “गाज़ा जल रहा है” — युद्ध की क्रूरता को और स्पष्ट करता है।
हम आपको बता दें कि गाज़ा पट्टी पहले से ही गंभीर मानवीय संकट से गुजर रही है। 64,000 से अधिक फ़िलिस्तीनी मारे जा चुके हैं और लाखों विस्थापित हो चुके हैं। भोजन और पानी की भारी कमी है, जबकि संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि यह ‘युद्ध’ अब ‘भुखमरी’ और ‘सामूहिक विस्थापन’ का रूप ले रहा है। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि कई लोगों की मौत भूख और कुपोषण से हो रही है।
हम आपको याद दिला दें कि पिछले सप्ताह इज़रायल ने क़तर की राजधानी दोहा में हमास नेताओं को निशाना बनाकर एक बड़ा हवाई हमला किया था। यह कदम केवल क्षेत्रीय तनाव को बढ़ाने वाला साबित हुआ। क़तर और अरब-इस्लामी देशों ने इसे ‘कायराना और विश्वासघाती हमला’ कहा। दोहा सम्मेलन में कई देशों ने इज़रायल के साथ कूटनीतिक और आर्थिक संबंधों पर पुनर्विचार का आह्वान भी किया। लेकिन इस राजनीतिक दबाव के बावजूद, अमेरिका का रुख द्वंद्वपूर्ण दिखाई देता है। विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने नेतन्याहू के साथ खड़े होकर साफ कहा कि युद्ध का अंत तभी होगा जब हमास सभी बंधकों को रिहा कर आत्मसमर्पण करेगा। यह अमेरिका की उस “कूटनीतिक समाधान” की बात को लगभग नकार देता है, जिसे सार्वजनिक मंचों पर दोहराया जाता है।
देखा जाये तो इज़रायल का सैन्य अभियान केवल गाज़ा तक सीमित नहीं है। दोहा में हमला इस बात का संकेत है कि युद्ध अब पूरे पश्चिम एशिया की स्थिरता को प्रभावित कर रहा है। मिस्र, सऊदी अरब और तुर्की जैसे देश चेतावनी दे रहे हैं कि ऐसे हमले शांति प्रक्रिया को पूरी तरह समाप्त कर सकते हैं। ऐसे में नेतन्याहू का संकेत कि इज़रायल भविष्य में वेस्ट बैंक पर भी संप्रभुता बढ़ा सकता है, पहले से ही तनावग्रस्त क्षेत्र को और अस्थिर बना देगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि गाज़ा की घटनाएँ यह स्पष्ट करती हैं कि यह संघर्ष अब केवल हमास और इज़रायल तक सीमित नहीं रहा। यह पूरे मध्य-पूर्व की भू-राजनीतिक स्थिरता, अरब-इज़रायल संबंधों और वैश्विक कूटनीति की परीक्षा बन चुका है। मानवीय त्रासदी की गहराई यह बताती है कि हिंसा के बल पर समाधान संभव नहीं। यदि क्षेत्रीय और वैश्विक शक्तियाँ समय रहते हस्तक्षेप कर एक वास्तविक राजनीतिक समाधान नहीं खोजतीं, तो यह संघर्ष एक स्थायी ज्वालामुखी बनकर पूरी दुनिया को अपनी लपटों में ले सकता है।
दूसरी ओर, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो की हालिया इज़रायल यात्रा को लेकर अंतरराष्ट्रीय जगत में उम्मीद जगी थी कि शायद गाज़ा संकट का कोई समाधान निकल सके। लेकिन वास्तविकता इसके बिल्कुल उलट सामने आई। रुबियो खुले तौर पर नेतन्याहू के साथ खड़े नज़र आए और उनका रुख यह संकेत देता रहा कि अमेरिका फिलहाल इज़रायल की कठोर नीतियों पर ही सहमति जता रहा है। यहाँ सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि डोनाल्ड ट्रंप की उस विवादास्पद सोच की चर्चा फिर से होने लगी है, जिसके अनुसार गाज़ा के युद्धग्रस्त तटीय क्षेत्र को भविष्य में “रिवेयरा” यानी एक आलीशान पर्यटक स्वर्ग में बदला जा सकता है। यदि यह विचार अमेरिकी विदेश मंत्री की यात्रा के साथ जोड़कर देखा जाए, तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वाकई गाज़ा की त्रासदी को केवल भू-राजनीतिक गणित और व्यापारिक मुनाफे के चश्मे से देखा जा रहा है?
आज गाज़ा में लाखों लोग भूख, बेघरपन और बमबारी की विभीषिका झेल रहे हैं। 64 हज़ार से अधिक जानें जा चुकी हैं। ऐसे समय में किसी भी बड़े राष्ट्राध्यक्ष या कूटनीतिज्ञ का ध्यान मानवीय सहायता, युद्धविराम और स्थायी राजनीतिक समाधान पर होना चाहिए। लेकिन जब चर्चा “खाली ज़मीन” और “रिवेयरा” जैसी योजनाओं तक पहुँच जाए, तो यह पूरे संघर्ष की नैतिकता पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है। रुबियो का दौरा इस संदेश को और पुष्ट करता है कि वाशिंगटन का झुकाव मानवीय संकट को हल करने से अधिक इज़रायल की भू-रणनीतिक आकांक्षाओं और ट्रंप की संभावित व्यावसायिक सोच की ओर है। यह न केवल अरब जगत में गहरी नाराज़गी को जन्म देगा बल्कि पूरी दुनिया के सामने अमेरिका की विश्वसनीयता पर भी प्रश्न उठाएगा।
देखा जाये तो गाज़ा की त्रासदी केवल युद्ध की कहानी नहीं, बल्कि यह इस बात का आईना है कि 21वीं सदी की वैश्विक राजनीति में मानव जीवन से अधिक महत्व सत्ता और पूँजी को दिया जा रहा है। यदि गाज़ा को “रिवेयरा” में बदलने की कल्पना सच होती है, तो यह केवल फ़िलिस्तीनी जनता की पीड़ा का अपमान ही नहीं बल्कि आधुनिक सभ्यता की नैतिक असफलता भी होगी।
उधर, गाज़ा युद्ध अब उस भयावह मोड़ पर पहुँच गया है जहाँ इज़रायल की सेना केवल हमास के ठिकानों तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि उसने गगनचुंबी इमारतों को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया है। गाज़ा सिटी की सबसे ऊँची 16 मंज़िला इमारत का ध्वस्त किया जाना इस बात का प्रतीक है कि युद्ध अब केवल सैन्य टकराव नहीं बल्कि शहर की स्मृति और पहचान को भी मिटाने का प्रयास बन गया है। ऊँची इमारतें किसी भी शहर की सांस्कृतिक व आर्थिक धड़कन मानी जाती हैं। इन्हें गिराना महज़ सैन्य कार्रवाई नहीं बल्कि जनता पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की रणनीति है। जब किसी समुदाय की “ऊँचाई” और “आधुनिकता” के प्रतीक को जड़ से मिटा दिया जाता है, तो यह संदेश दिया जाता है कि उनके पास भविष्य निर्माण का कोई आधार नहीं बचा। इमारतों में केवल दफ़्तर या सुविधाएँ ही नहीं थीं, बल्कि उनमें विस्थापित परिवार शरण लिए हुए थे। इस तरह का हमला सीधे-सीधे आम नागरिकों को और असुरक्षित करता है। पहले घर ढहे, फिर तंबू जले और अब शहर की ऊँची इमारतें भी जमींदोज़— यह मानवीय संकट को और गहराता है।
गगनचुंबी इमारतों को निशाना बनाने का यह पैटर्न बताता है कि इज़रायल गाज़ा को पूरी तरह से “रिवर्स-अर्बनाइज़” यानी शहर से खंडहर में बदल देना चाहता है। यह केवल युद्धनीति नहीं, बल्कि एक दीर्घकालिक भू-राजनीतिक संदेश भी है: “गाज़ा अब एक शहर नहीं, बल्कि एक नियंत्रित ज़ोन होगा।”
बहरहाल, गगनचुंबी इमारतों का ढहाया जाना स्पष्ट करता है कि गाज़ा का युद्ध सिर्फ़ हमास को हराने के लिए नहीं, बल्कि गाज़ा की सामूहिक पहचान को मिटाने और वहाँ की जनता को स्थायी विस्थापन की ओर धकेलने का प्रयास है। सवाल यह है कि क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय केवल आँकड़े गिनते हुए यह तमाशा देखता रहेगा, या फिर यह स्वीकार करेगा कि यह सिर्फ़ युद्ध नहीं, बल्कि शहर और सभ्यता का सुनियोजित विनाश है।