उदयपुर के कन्हैयालाल हत्याकांड को देश कभी नहीं भूल सकता। यह न केवल एक नृशंस हत्या थी, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज में कट्टरपंथ के खतरे को उजागर करने वाली एक बड़ी घटना थी। इस घटना पर आधारित फिल्म के प्रदर्शन के खिलाफ कुछ संगठनों और राजनीतिक दलों द्वारा उठाई जा रही आपत्तियां और विरोध प्रदर्शन कोई साधारण विरोध नहीं है, बल्कि इसके पीछे राजनीति और तथाकथित सेकुलर छवि को बचाए रखने का वह खेल छुपा है, जिसे भारत पिछले कई दशकों से झेल रहा है।
जो लोग इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने की मांग कर रहे हैं, वे सीधे-सीधे यह संदेश देना चाहते हैं कि समाज में किसी विशेष वर्ग की कट्टरता को सिनेमा के माध्यम से उजागर करना उनके तथाकथित ‘सामाजिक सौहार्द’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ के एजेंडे के खिलाफ है। इन संगठनों और नेताओं का डर यह नहीं है कि समाज में नफरत फैलेगी, बल्कि उनका डर यह है कि यदि कट्टरपंथ के असली चेहरे को लोग खुली आंखों से देखेंगे, तो उनकी वर्षों से चली आ रही ‘तुष्टिकरण की राजनीति’ और ‘सेकुलर छवि’ का नकाब उतर जाएगा।
देखा जाये तो उदयपुर के कन्हैयालाल के परिवार को इंसाफ दिलाने के लिए जिन आवाजों को सबसे तेज़ उठना चाहिए था, वे आज फिल्म के विरोध में खड़ी हैं। विपक्षी पार्टियों के नेता उस समय भी चुप थे जब कन्हैयालाल को नृशंस तरीके से मार दिया गया था और आज भी उनकी प्राथमिकता पीड़ित नहीं, बल्कि अपनी सेकुलर इमेज को बनाए रखना है। उन्हें डर है कि अगर इस फिल्म को समर्थन देंगे तो उनका वोटबैंक उनसे नाराज हो सकता है।
इस तरह के विरोध यह भी दिखाते हैं कि कुछ राजनीतिक दल और संगठन कट्टरपंथी सोच को चुनौती नहीं देना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनका तथाकथित ‘माइनॉरिटी फ्रेंडली’ चेहरा धुंधला हो जाएगा। वे जानते हैं कि कन्हैयालाल की हत्या जैसे मुद्दे को हवा देना उनके वोटबैंक को नाराज कर सकता है, इसलिए वे या तो चुप्पी साध लेते हैं या विरोध के नाम पर ऐसे प्रोजेक्ट्स को रोकने की कोशिश करते हैं।
खास बात यह भी है कि अक्सर यही वर्ग ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के नाम पर हिंदू आस्था, परंपरा और देवी-देवताओं पर बनी फिल्मों या वेब सीरीज का समर्थन करते हैं। लेकिन जैसे ही बात कट्टरपंथी हिंसा या जिहादी मानसिकता के पर्दाफाश की आती है, तो यही लोग ‘सामाजिक सौहार्द’ और ‘शांति’ के नाम पर विरोध में उतर आते हैं। अपनी तथाकथित सेकुलर इमेज की चिंता करने वाले नेता इस डर से ग्रस्त रहते हैं कि यदि उन्होंने ऐसे मुद्दों पर खुलकर पक्ष लिया, तो उनका वह वोटबैंक जो पहचान की राजनीति के आधार पर उनसे जुड़ा है, उनसे दूर हो जाएगा। इसलिए उनके लिए न्याय से अधिक अपनी छवि बचाना आवश्यक हो जाता है।
देखा जाये तो कन्हैयालाल हत्याकांड पर बनी फिल्म का विरोध दरअसल ‘सच’ को छुपाने का राजनीतिक प्रयास है। यह उस मानसिकता की बौखलाहट है, जो आज भी कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ खड़े होने से डरती है। यह विरोध केवल एक फिल्म का नहीं, बल्कि उस प्रयास का विरोध है, जो समाज को यह दिखाना चाहता है कि कट्टरपंथ किसी भी सभ्य समाज के लिए कितना बड़ा खतरा है। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है कि पीड़ित के न्याय से ज्यादा चिंता नेताओं को अपनी ‘सेकुलर ब्रांडिंग’ की है। यह वही दोहरा मापदंड है, जिसने वर्षों तक देश की राजनीति को भ्रमित किया और न्याय को हाशिए पर धकेला।
हम आपको बता दें कि उच्चतम न्यायालय कन्हैया लाल दर्जी हत्या मामले में आरोपियों की उस याचिका पर बुधवार को सुनवाई करेगा जिसमें मामले पर आधारित फिल्म की रिलीज का विरोध किया गया है। देखना होगा कि अदालत क्या फैसला लेती है। हम आपको यह भी बता दें कि फिल्म के निर्माताओं को ‘सेंसर बोर्ड’ (केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड) से प्रमाणन मिलने के बावजूद दिल्ली उच्च न्यायालय ने 10 जुलाई को ‘उदयपुर फाइल्स’ की रिलीज पर रोक लगा दी थी।