दुनिया भर में प्रवासियों के खिलाफ हालिया प्रदर्शनों ने एक गहरी बेचैनी को उजागर कर दिया है। चाहे वह लंदन हो या ऑस्ट्रेलिया, आम जनता की सड़कों पर उतरती नाराज़गी यह दर्शाती है कि प्रवासन अब केवल सामाजिक और आर्थिक सवाल नहीं रहा, बल्कि राजनीतिक ध्रुवीकरण और सांस्कृतिक टकराव का केंद्र बन चुका है। ऑस्ट्रेलिया और लंदन में प्रवासियों के खिलाफ हुए प्रदर्शनों ने यह सवाल फिर खड़ा कर दिया है कि क्या वैश्वीकरण का युग अब “खुली सीमाओं” से पीछे हट रहा है? देखा जाये तो दुनियाभर में प्रवासियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन इसके समानांतर उनका विरोध भी उतनी ही तीव्रता से सामने आ रहा है। यह विरोध केवल सामाजिक असंतोष का संकेत नहीं बल्कि गहरे आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संकट की अभिव्यक्ति है।
देखा जाये तो प्रदर्शनों के मूल में सबसे बड़ा कारण रोज़गार और संसाधनों की प्रतिस्पर्धा है। स्थानीय नागरिकों को लगता है कि प्रवासी उनके रोजगार छीन रहे हैं, मजदूरी कम कर रहे हैं और सामाजिक सेवाओं पर बोझ डाल रहे हैं। कोविड महामारी और आर्थिक मंदी के बाद यह असुरक्षा और गहरी हुई है। ऑस्ट्रेलिया में निर्माण और सेवा क्षेत्र में बढ़ते प्रवासी श्रमिकों को लेकर नाराज़गी इसी असुरक्षा का प्रतिफल है।
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दूसरी ओर, लंदन जैसे बहुसांस्कृतिक शहर में भी हाल के प्रदर्शनों ने यह उजागर किया है कि एक वर्ग को लगता है प्रवासियों की संख्या बढ़ने से उनकी पारंपरिक पहचान और जीवन-शैली खतरे में पड़ रही है। भाषा, खान-पान और धार्मिक विविधता कभी-कभी संवाद और सौहार्द का पुल बनने की बजाय टकराव का कारण बन जाती है। इस सांस्कृतिक बेचैनी को चरमपंथी ताकतें भड़काने से भी पीछे नहीं हटतीं।
सबसे अहम पक्ष राजनीति का है। कई देशों में दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी दल प्रवासी मुद्दे को चुनावी हथियार बनाते हैं। “बाहरी” को खतरे के रूप में प्रस्तुत करना जनता की भावनाओं को भड़काने का आसान साधन बन चुका है। ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन में भी हालिया प्रदर्शनों के पीछे राजनीतिक संगठनों और गुटों की सक्रिय भूमिका सामने आई है।
इन प्रदर्शनों से यह स्पष्ट है कि प्रवासियों के सवाल पर समाज गहरे ध्रुवीकरण का शिकार हो रहा है। एक ओर प्रवासी राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था में श्रम और विविधता के जरिए योगदान दे रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें अपराध, बेरोज़गारी और असुरक्षा से जोड़कर देखा जा रहा है। यह दृष्टिकोण न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों को चुनौती देता है बल्कि सामाजिक समरसता को भी तोड़ता है।
आगे की राह देखें तो दुनिया को यह मानना होगा कि प्रवासी केवल समस्या नहीं, समाधान भी हैं। मज़बूत सामाजिक नीति, स्थानीय नागरिकों और प्रवासियों के बीच संवाद, और रोजगार के नए अवसर ही इस तनाव को कम कर सकते हैं। अगर राजनीति केवल नफ़रत की आग भड़काने में लगी रही तो आने वाले समय में यह प्रदर्शनों की लहर बड़े सामाजिक टकराव का रूप ले सकती है।
देखा जाये तो ऑस्ट्रेलिया और लंदन में हुए प्रदर्शन सिर्फ प्रवासियों के खिलाफ गुस्से का इज़हार नहीं, बल्कि यह इस सदी की उस दुविधा का आईना हैं जिसमें वैश्वीकरण की ज़रूरत और स्थानीय असुरक्षाओं के बीच संतुलन बनाने की चुनौती सबसे बड़ी हो गई है।
इसके अलावा, लंदन में प्रवासियों के खिलाफ हुए आंदोलन को एलन मस्क ने संबोधित किया जोकि अपने आप में आश्चर्यजनक था। जब दुनिया के सबसे प्रभावशाली उद्योगपति और टेक दिग्गज “लड़ो या मर जाओ” जैसी उकसाने वाली भाषा में प्रवासी नीति पर टिप्पणी करते हैं, तो उसका असर केवल एक देश तक सीमित नहीं रहता। एलन मस्क ने ब्रिटेन की सरकार पर आरोप लगाया कि वह “वोटरों का आयात” कर रही है और प्रवासियों को सुनियोजित ढंग से बढ़ावा दिया जा रहा है। इस तरह की टिप्पणी सीधे उस असुरक्षा और अविश्वास को हवा देती है जो स्थानीय जनता के बीच पहले से मौजूद है। प्रवासियों के कारण रोजगार, सुरक्षा और सांस्कृतिक पहचान पर संकट का जो भय है, एलन मस्क की भाषा ने उसे और तीखा बना दिया।
वहीं, ब्रिटिश सरकार ने इसे “खतरनाक और भड़काऊ” करार दिया है। सच भी यही है कि “fight back or die” जैसी बयानबाज़ी लोकतांत्रिक विमर्श से ज़्यादा भीड़ की उत्तेजना को जन्म देती है। जब यह भाषा तकनीकी जगत के सबसे ताकतवर व्यक्तियों में से एक की ओर से आती है, तो इसका असर राजनीतिक और सामाजिक तनाव दोनों पर गहरा पड़ता है। देखा जाये तो आज यह सबसे बड़ी चुनौती है कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति और ज़िम्मेदारी के बीच संतुलन कैसे बने। प्रवासी संकट का हल नफरत और डर की राजनीति से नहीं निकलेगा। इसके लिए संवाद, संवेदनशील नीति और स्थानीय नागरिकों के साथ प्रवासियों के बीच विश्वास की सेतु ही स्थायी समाधान है।
एलन मस्क का लंदन भाषण यह बताता है कि प्रवासी सवाल अब केवल सामाजिक समस्या नहीं रहा, बल्कि यह वैश्विक राजनीति का ध्रुवीकरण बिंदु बन चुका है। यदि जिम्मेदार हस्तियां भी उकसावे और भय की भाषा का सहारा लेंगी, तो यह आग न केवल यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भड़केगी, बल्कि पूरी दुनिया को अस्थिर करेगी। यही समय है जब प्रवासी प्रश्न को “खतरा” मानने की बजाय “अवसर” के रूप में देखने की परिपक्वता दिखाई जाए।
बहरहाल, घटनाएं दर्शा रही हैं कि रोजगार, संसाधन और सामाजिक सेवाओं पर दबाव महसूस करने वाली जनता प्रवासियों को अपने संकट का कारण मानने लगी है। अगर इस संकट को संवाद और संवेदनशील नीतियों के ज़रिये नहीं संभाला गया तो यह तनाव बड़े सामाजिक टकराव का रूप ले सकता है। संतुलित नीतियों और सहिष्णु समाज निर्माण से ही इस बेचैनी को शांति में बदला जा सकता है। अन्यथा, हालिया प्रदर्शनों की गूंज आने वाले वर्षों में और भी बड़ी विस्फोटक परिस्थितियों की आहट है।