हाल ही में शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता जितेंद्र आव्हाड़ और अभिनेता से नेता बने कमल हासन द्वारा सनातन धर्म के विरोध में दिए गए बयानों ने एक बार फिर भारतीय राजनीति में विचारधारात्मक संघर्ष को उजागर कर दिया है। इन बयानों पर तीखी प्रतिक्रियाएं आई हैं— न सिर्फ राजनीतिक दलों से, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों से भी। ऐसे में यह सवाल उठता है कि कुछ नेता बार-बार सनातन धर्म को ही निशाना क्यों बना रहे हैं? क्या यह तात्कालिक राजनीतिक लाभ का माध्यम बनता जा रहा है?
देखा जाये तो सनातन धर्म कोई संकीर्ण धार्मिक व्यवस्था नहीं, बल्कि एक व्यापक और लचीला जीवनदर्शन है, जो सहिष्णुता और विविधता को महत्व देता है। सनातन धर्म केवल पूजा पद्धतियों तक सीमित नहीं है बल्कि यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र— दर्शन, विज्ञान, कला, सामाजिक आचरण में मार्गदर्शन देता है। यही कारण है कि इसे “सनातन” यानी शाश्वत कहा गया। कमल हासन और जितेंद्र आव्हाड़ जैसे नेताओं के सनातन विरोधी बयान सिर्फ सुर्खियां हासिल करने का नहीं बल्कि तुष्टिकरण की राजनीति का परिचायक भी है। यहां गौर करने योग्य बात यह है कि इन बयानों का समय और संदर्भ भी विशेष है। दरअसल हाल ही में मालेगांव विस्फोट मामले में अदालत द्वारा यह टिप्पणी कि “कोई हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता” कुछ राजनीतिक वर्गों को चुभ गई है। देखा जाये तो, “भगवा आतंकवाद” जैसे शब्दों को गढ़ कर, कुछ दलों ने एक वैकल्पिक नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की थी, ताकि इस्लामी आतंकवाद के मुकाबले एक ‘हिंदू चरमपंथ’ की परिकल्पना पेश की जा सके।
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जब न्यायपालिका ऐसे मामलों में आरोपी व्यक्तियों को संदेह का लाभ देकर मुक्त करती है या टिप्पणी करती है कि धार्मिक पहचान को आतंकवाद से जोड़ना उचित नहीं, तो वह नैरेटिव ढहता नजर आता है— और कुछ नेता बौखलाहट में पूरे सनातन धर्म पर ही हमला करने लगते हैं। यहाँ एक मूलभूत प्रश्न उठता है— क्या सनातन धर्म की आलोचना का अर्थ स्वयं धर्म के विरोध से है? यदि आलोचना धर्म में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों के प्रति है, तो वह वैचारिक बहस का हिस्सा हो सकती है। लेकिन यदि आलोचना द्वेषपूर्ण भाषा, सामूहिक निंदा और सांस्कृतिक अपमान का रूप ले ले, तो वह सामाजिक समरसता के लिए खतरा बन जाती है।
देखा जाये तो वास्तव में, आज जरूरत है धर्म के भीतर सुधार की स्वस्थ बहस की, न कि उसे राजनीतिक लाभ के लिए निशाना बनाने की। कमल हासन और जितेंद्र आव्हाड़ जैसे नेताओं को समझना होगा कि भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती इसकी विविधता में है और सनातन धर्म इस विविधता की नींव है। जब कोई नेता इसकी आलोचना करता है, तो वह न केवल बहुसंख्यक समाज की आस्था को आहत करता है, बल्कि समाज में ध्रुवीकरण को भी बढ़ावा देता है। राजनीति में वैचारिक भिन्नता हो सकती है, होनी भी चाहिए। लेकिन किसी धर्म को कलंकित करके राजनीति करना— वह भी लोकतांत्रिक भारत में, न तो नैतिक रूप से उचित है, और न ही दीर्घकालिक रणनीति के रूप में सफल।
जहां तक कमल हासन और जितेंद्र आव्हाड़ के बयानों की बात है तो आपको बता दें कि मक्कल निधि मय्यम पार्टी के प्रमुख और अभिनेता कमल हासन ने कहा है कि शिक्षा ही एकमात्र ऐसा हथियार है जो ‘‘निरंकुशता और सनातन धर्म की बेड़ियों को तोड़ सकती है’’। कुछ दिन पहले ही राज्यसभा के सदस्य के रूप में शपथ ग्रहण करने वाले कमल हासन ने प्रसिद्ध तमिल अभिनेता सूर्या के अगारम फाउंडेशन द्वारा आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए छात्रों से कहा, ‘‘किसी और चीज पर हाथ मत रखना, क्योंकि तुम जीत नहीं सकते; क्योंकि बहुसंख्यक तुम्हें हरा देंगे, बहुसंख्यक मूर्ख तुम्हें हरा देंगे और समझदारी (ज्ञान) हार जाएगी।’’ वहीं जितेंद्र आव्हाड ने कहा है कि “सनातन ने भारत को बर्बाद कर दिया है।”
दूसरी ओर, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने इन दोनों नेताओं की ‘सनातन’ पर विवादास्पद टिप्पणी को लेकर उनकी आलोचना करते हुए उन पर हिंदू समाज को बदनाम करने के एजेंडे पर काम करने का आरोप लगाया है। विहिप के राष्ट्रीय महासचिव सुरेन्द्र जैन ने कहा कि जो लोग सनातन के बारे में ऐसी बातें कहते हैं, वे या तो ‘शरारती’ हैं या ‘मासूम’ हैं। उन्होंने कहा, “कमल हासन मासूम नहीं हो सकते। वह जानबूझकर हिंदू समाज को बदनाम करने के एजेंडे के तहत काम कर रहे हैं।” उन्होंने कहा कि कमल हासन और जितेंद्र आव्हाड, दोनों “एक ही मानसिकता” के हैं। सुरेन्द्र जैन ने कहा, “आप में सनातन के बारे में इतना कहने का साहस है क्योंकि सनातन दयालु है और हर तरह के विरोध और असहमति की अनुमति देता है, लेकिन किसी भी सभ्य समाज में अपमानजनक भाषा स्वीकार्य नहीं है।”