Friday, July 18, 2025
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Mathura, Kashi पर बदला RSS का रुख, Dattatreya Hosabale बोले- मंदिर के लिए आंदोलन में शामिल हो सकते हैं स्वयंसेवक

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने स्पष्ट किया है कि अगर संगठन के सदस्य मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी विवाद से संबंधित प्रयासों में भाग लेते हैं तो संगठन को कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन उन्होंने सभी मस्जिदों को निशाना बनाने के प्रयासों के खिलाफ चेतावनी दी और सामाजिक कलह से बचने की आवश्यकता पर बल दिया। होसबोले ने कन्नड़ में आरएसएस के मुखपत्र विक्रम से बातचीत में कहा, “उस समय (1984) विश्व हिंदू परिषद और साधु-संतों ने तीन मंदिरों की बात की थी। अगर हमारे स्वयंसेवकों का एक वर्ग इन तीन मंदिरों (अयोध्या में राम जन्मभूमि सहित) के मामले में एकजुट होना चाहता है, तो हम उन्हें नहीं रोकेंगे।” देखा जाये तो होसबोले का यह बयान संघ प्रमुख मोहन भागवत के पूर्व में दिये गये बयान से बिल्कुल उलट है। हम आपको याद दिला दें कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अयोध्या राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कहा था कि मथुरा और काशी आरएसएस के एजेंडे में नहीं है और अब मंदिर के लिए कोई आंदोलन नहीं होगा। उन्होंने बाद में कई बार यह भी कहा था कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूँढ़ना सही नहीं है। अब होसबोले जब यह कह रहे हैं कि उन्हें मथुरा और काशी के लिए चल रहे प्रयासों में स्वयंसेवकों के भागीदार बनने से कोई आपत्ति नहीं है तो साफ है कि आरएसएस ने अपना रुख बदल लिया है। हम आपको याद दिला दें कि मोहन भागवत ने जब जब यह कहा कि हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग ढूंढ़ना सही नहीं है तब तब हिंदुओं के एक बड़े वर्ग और संतों ने उनकी टिप्पणियों का विरोध किया।
हम आपको यह भी बता दें कि दत्तात्रेय होसबोले ने गोहत्या, लव जिहाद और धर्मांतरण से जुड़ी मौजूदा चिंताओं को स्वीकार करते हुए अस्पृश्यता को खत्म करने, युवाओं के बीच संस्कृति के संरक्षण और स्वदेशी भाषाओं की सुरक्षा जैसे समकालीन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने का आग्रह किया। वहीं भाषा नीति पर होसबोले ने त्रिभाषी दृष्टिकोण का समर्थन किया और इसे 95% भाषाई विवादों का समाधान बताया। उन्होंने “भारतीय” भाषाओं को संरक्षित करने और उनमें शिक्षित लोगों के लिए आर्थिक अवसर सुनिश्चित करने के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने कहा, “हमारी सभी भाषाओं ने गहन साहित्यिक कृतियों का निर्माण किया है।” “अगर आने वाली पीढ़ियाँ इन भाषाओं में नहीं पढ़ेंगी और लिखेंगी, तो वे कैसे जीवित रहेंगी? उन्होंने कहा, “इस विशाल देश में अगर हर कोई संस्कृत सीख ले तो बहुत बढ़िया होगा। यहां तक कि डॉ. अंबेडकर ने भी इसकी वकालत की थी। कई लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा सीखने में भी कोई बुराई नहीं है।”

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दत्तात्रेय होसबोले ने साथ ही एक आलेख में कहा है कि संघ ने ‘‘राष्ट्रीय पुनर्निर्माण’’ के एक आंदोलन के रूप में शुरुआत करके उपेक्षा और उपहास से जिज्ञासा और स्वीकार्यता की यात्रा पूर्ण की है। होसबोले ने लोगों से संगठन के संकल्प को पूरा करने में शामिल होने का आग्रह किया। विश्व संवाद केंद्र भारत वेबसाइट पर ‘‘संघ शताब्दी’’ शीर्षक वाले एक लेख में उन्होंने लिखा है, ‘‘संघ किसी का विरोध करने में विश्वास नहीं रखता। हमें विश्वास है कि संघ कार्य का विरोध करने वाला व्यक्ति भी एक दिन राष्ट्र निर्माण के इस पुनीत कार्य में संघ के साथ सहभागी होगा।’’ हम आपको बता दें कि विश्व संवाद केंद्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से सम्बद्ध एक मीडिया केंद्र है।
वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन स्थापना के बाद से आरएसएस की यात्रा का उल्लेख करते हुए होसबोले ने कहा, ‘‘पिछले सौ वर्षों में संघ ने राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के आंदोलन के रूप में उपेक्षा और उपहास से जिज्ञासा और स्वीकार्यता की यात्रा पूर्ण की है।’’ उन्होंने कहा कि संघ इस वर्ष अपने कार्य के 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है, ऐसे समय में ‘‘उत्सुकता’’ है कि संघ इस अवसर को किस रूप में देखता है। उन्होंने कहा, ‘‘स्थापना के समय से ही संघ के लिए यह बात स्पष्ट रही है कि ऐसे अवसर उत्सव के लिए नहीं होते, बल्कि ये हमें आत्मचिंतन करने तथा अपने उद्देश्य के प्रति पुनः समर्पित होने का अवसर प्रदान करते हैं।’’ होसबोले ने कहा कि साथ ही यह अवसर इस पूरे आंदोलन को दिशा देने वाले ‘‘मनीषियों’’ और इस यात्रा में ‘‘निःस्वार्थ’’ भाव से जुड़ने वाले स्वयंसेवक व उनके परिवारों के स्मरण का भी है। उन्होंने कहा, ‘‘(संघ के) सौ वर्षों की इस यात्रा के अवलोकन और विश्व शांति व समृद्धि के साथ सामंजस्यपूर्ण और एकजुट भारत के भविष्य का संकल्प लेने के लिए संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार की जयंती से बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता, जो वर्ष प्रतिपदा यानि हिंदू कैलेंडर का पहला दिन है।’’
होसबोले ने कहा कि डॉ. हेडगेवार ने मातृभूमि को दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने वाले सभी प्रयासों का सम्मान किया, जिसमें सशस्त्र क्रांति से लेकर सत्याग्रह शामिल है और इनमें से किसी भी प्रयास को कमतर नहीं समझा। उन्होंने कहा कि डॉ. हेडगेवार ‘‘जन्मजात देशभक्त’’ थे और ‘‘भारतभूमि के प्रति उनका अगाध प्रेम और शुद्ध समर्पण’’ बचपन से ही उनके क्रियाकलापों में दिखाई देता था। होसबोले ने कहा कि ‘‘डॉ. हेडगेवार ने उन समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया, जिनकी वजह से हम विदेशी दासता की बेड़ियों में जकड़े गए। साथ ही उन्होंने इस समस्या का स्थायी समाधान देने का भी निर्णय किया।’’ होसबोले ने कहा कि डॉ. हेडगेवार ने अनुभव किया कि दैनिक जीवन में देशभक्ति की भावना का अभाव, सामूहिक राष्ट्रीय चरित्र का ह्रास, जिसके परिणामस्वरूप संकीर्ण पहचान पैदा होती है तथा सामाजिक जीवन में अनुशासन की कमी, विदेशी आक्रमणकारियों के भारत में पैर जमाने के मूल कारण हैं। होसबोले ने कहा कि साथ ही डॉ. हेडगेवार ने इसका भी अनुभव किया कि विदेशी दासता में लोग अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भूल चुके हैं, जिसके चलते उनके मन में अपनी संस्कृति और ज्ञान परंपरा के संबंध में हीन भावना घर कर गई है। उन्होंने कहा, ‘‘डॉ. हेडगेवार का मानना था कि कुछ लोगों के नेतृत्व में केवल राजनीतिक आंदोलनों से हमारे प्राचीन राष्ट्र की मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं होगा। इसलिए उन्होंने लोगों को राष्ट्रहित में जीने के लिए प्रशिक्षित करने के वास्ते निरंतर प्रयास की एक पद्धति तैयार करने का निर्णय किया।’’ उन्होंने कहा कि शाखाओं के माध्यम से संघ की “अभिनव और अद्वितीय” कार्यप्रणाली राजनीतिक संघर्ष से परे हेडगेवार की “दूरदर्शी सोच” का परिणाम है।
होसबोले ने कहा, ‘‘भारत के राजनीतिक स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए, डॉ. हेडगेवार ने समाज के भीतर एक संगठन बनाने के बजाय पूरे समाज को संगठित करने के लिए इस कार्यपद्धति को विकसित किया।’’ उन्होंने कहा कि समाज में संघ की स्वीकार्यता और अपेक्षाएं भी बढ़ रही हैं, यह सब हेडगेवार की दृष्टि व कार्यपद्धति की स्वीकार्यता का संकेत है। उन्होंने कहा, ‘‘जब हमें स्वतंत्रता प्राप्त हुई, दुर्भाग्यवश उसी समय भारत माता का मजहब के आधार पर विभाजन हो गया। ऐसी कठिन परिस्थिति में संघ के स्वयंसेवकों ने नए बने पाकिस्तान में बंटवारे का दंश झेल रहे हिंदुओं को बचाने और उन्हें सम्मान और गरिमा के साथ पुनर्स्थापित करने के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया।’’ होसबोले ने कहा कि डॉ. हेडगेवार ने किसी वैचारिक सिद्धांत का प्रतिपादन करने के बजाय बीज रूप में एक कार्ययोजना दी, जो इस यात्रा में मार्गदर्शक शक्ति रही है।
उन्होंने कहा, ‘‘इस आंदोलन और दर्शन का नित्य नूतन विकास किसी चमत्कार से कम नहीं है। हिंदुत्व और राष्ट्र के विचार को समझाना आसान कार्य नहीं था, क्योंकि उस काल के अधिकांश अंग्रेजी शिक्षित बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद की यूरोपीय अवधारणा से प्रभावित थे। राष्ट्रवाद की यह यूरोपीय अवधारणा संकीर्णता और बहिष्करण पर आधारित थी।’’ होसबोले ने कहा कि आजकल हर चीज को राजनीतिक चश्मे से देखने की प्रवृत्ति है, ऐसी स्थिति में भी संघ ‘‘समाज के सांस्कृतिक जागरण’’ और ‘‘सम्यक सोच वाले लोगों और संगठनों’’ की एक मजबूत संरचना विकसित करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। उन्होंने कहा कि भारत एक प्राचीन सभ्यता है, जिसे अपनी आध्यात्मिक परम्पराओं के आधार पर मानवता के हित में अहम भूमिका निभानी है। उन्होंने कहा कि यदि भारत को एकात्म एवं सार्वभौमिक सद्भावना पर आधारित यह महती भूमिका निभानी है, तो भारतीयों को इस लक्ष्य के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। उन्होंने द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर का उल्लेख करते हुए कहा, ‘‘इस निमित्त श्री गुरुजी ने एक मजबूत वैचारिक आधार प्रदान किया।’’
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