देश की न्यायिक व्यवस्था में पनप रहे एक असंतोष ने बुधवार को तब खुलकर स्वर ले लिया, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में सर्वोच्च न्यायालय से कहा कि राज्य न्यायिक अधिकारियों के सेवा नियमों के निर्धारण में “हैंड्स-ऑफ” (अहस्तक्षेप) नीति अपनाई जाए। हम आपको बता दें कि यह विवाद उस समय उभरा जब सर्वोच्च न्यायालय देशभर के जिला न्यायाधीशों के लिए समान सेवा नियमों और पदोन्नति की एकरूपता सुनिश्चित करने की दिशा में कदम उठा रहा था। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत, विक्रम नाथ, के. विनोद चंद्रन और जॉयमल्य बागची शामिल थे, वह इस बात पर विचार कर रही थी कि क्या जिला न्यायपालिका में पदोन्नति और भर्ती के लिए सामान्य दिशानिर्देश जारी किए जाएँ।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 227(1) के अनुसार, जिला न्यायपालिका पर पर्यवेक्षण का अधिकार उच्च न्यायालय को प्राप्त है, न कि सर्वोच्च न्यायालय को। उन्होंने कहा, “यह समय उच्च न्यायालयों को मज़बूत करने का है, उन्हें कमजोर करने का नहीं। सर्वोच्च न्यायालय को अपनी भूमिका सीमित रखनी चाहिए।” राकेश द्विवेदी ने 2017 की उस पहल का भी उल्लेख किया जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्यक्ष भर्ती जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (All India Judicial Service) बनाने का प्रस्ताव रखा था। उन्होंने कहा, “उस समय भी हमने विरोध किया था, क्योंकि सेवा शर्तें और न्यायिक ढांचा हर राज्य में भिन्न हैं। सर्वोच्च न्यायालय न तो सेवानिवृत्ति आयु तय कर सकता है और न ही पदोन्नति का कोटा।”
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इस पर मुख्य न्यायाधीश गवई ने स्पष्ट किया कि “सर्वोच्च न्यायालय का उद्देश्य उच्च न्यायालयों की शक्तियों को छीनना नहीं है, बल्कि केवल समानता और पारदर्शिता सुनिश्चित करना है।” न्यायमूर्ति सूर्यकांत, जो अगले मुख्य न्यायाधीश बनने वाले हैं, उन्होंने कहा कि “हम किसी का अधिकार नहीं छीनना चाहते; बस यह विचार है कि देशभर में पदोन्नति के नियमों में कुछ समानता हो।”
हम आपको बता दें कि वर्तमान में जिला न्यायाधीशों की पदोन्नति का अनुपात कई बार बदला गया है। 2002 में यह 50:25:25, फिर 2010 में 65:25:10 हुआ और बाद में फिर से 50:25:25 कर दिया गया। इस असंगति ने न्यायिक अधिकारियों में असंतोष को जन्म दिया है।
इसके अलावा, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने भी सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर आपत्ति जताते हुए कहा कि “वर्तमान व्यवस्था ठीक काम कर रही है; इसे बदलने की आवश्यकता नहीं।” वहीं बिहार, केरल और दिल्ली के वकीलों ने भी इस विचार का समर्थन किया कि सर्वोच्च न्यायालय को मौजूदा प्रक्रिया में बदलाव नहीं करना चाहिए।
देखा जाये तो यह विवाद केवल “सेवा नियमों” का नहीं, बल्कि संविधानिक अधिकार-सीमाओं के संतुलन का है। अनुच्छेद 227 उच्च न्यायालयों को अपने अधीनस्थ न्यायालयों पर पर्यवेक्षण का अधिकार देता है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य दायित्व संवैधानिक व्याख्या और न्यायिक एकरूपता सुनिश्चित करना है। इसलिए जब सर्वोच्च न्यायालय “एकरूप सेवा नियम” लाने की बात करता है, तो यह निश्चय ही प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से उचित प्रतीत होता है, परंतु यह संविधान के संघीय ढांचे के भीतर संवेदनशील हस्तक्षेप भी है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की यह आपत्ति इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि न्यायिक सेवा, प्रत्येक राज्य की न्यायिक संस्कृति, कार्यभार और मानव संसाधन की प्रकृति पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में न्यायालयों की संख्या और मामलों की जटिलता दिल्ली या सिक्किम की तुलना में कई गुना अधिक है। ऐसे में “एक समान नियम” बनाना व्यवहारिक कठिनाई पैदा कर सकता है।
दूसरी ओर, सर्वोच्च न्यायालय की मंशा को केवल अधिकार क्षेत्र के विस्तार के रूप में देखना भी न्यायोचित नहीं होगा। अदालत के समक्ष यह वास्तविक समस्या है कि कुछ राज्यों में न्यायिक अधिकारियों को जिला जज बनने में 20 वर्ष लग जाते हैं, जबकि वकील मात्र 10 वर्ष के अनुभव के साथ परीक्षा देकर उसी पद पर पहुँच जाते हैं। इस असंतुलन से न्यायिक कॅरियर में निराशा, पदोन्नति विवाद और प्रशासनिक असमानता उत्पन्न होती है।
न्यायिक प्रभाव की दृष्टि से, यदि सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे में गहराई से हस्तक्षेप करता है, तो इससे संविधानिक संघवाद की न्यायिक शाखा में तनाव बढ़ सकता है। उच्च न्यायालयों की प्रशासनिक स्वायत्तता घटेगी और “केंद्रीकृत न्यायिक प्रशासन” की दिशा में प्रवृत्ति बढ़ेगी। यह प्रवृत्ति अनुच्छेद 50 (न्यायपालिका की स्वतंत्रता) की आत्मा के विपरीत भी मानी जा सकती है।
वहीं, यदि सर्वोच्च न्यायालय पूरी तरह “हैंड्स-ऑफ” नीति अपनाता है, तो देशभर में न्यायिक पदोन्नति की असमानता बनी रहेगी, जो न्यायिक कार्यकुशलता और प्रतिभा के संरक्षण दोनों के लिए हानिकारक है। इसलिए, सर्वोत्तम मार्ग यह प्रतीत होता है कि सर्वोच्च न्यायालय संविधान की सीमाओं में रहते हुए केवल न्यूनतम मानक तय करे— जैसे पदोन्नति के सिद्धांत, परीक्षा की पारदर्शिता और समयबद्ध प्रक्रिया, जबकि राज्यों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार लचीलापन दिया जाए।
बहरहाल, यह टकराव भारतीय न्यायपालिका के भीतर संवैधानिक आत्ममंथन का प्रतीक है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की यह मुखरता न्यायिक संघवाद के स्वास्थ्य की निशानी है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय की पहल न्यायिक संरचना में समानता की खोज का प्रयास है। इन दोनों के बीच संतुलन ही भारतीय न्याय प्रणाली की वास्तविक मज़बूती का आधार बनेगा।

