पाकिस्तान के उप-प्रधानमंत्री इशाक डार ने पाकिस्तान-सऊदी अरब रक्षा समझौते को भविष्य में “नए NATO” जैसा गठबंधन बनने की संभावना से तो जोड़ा ही है साथ ही कहा है कि यह घटनाक्रम दक्षिण एशिया ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण इस्लामिक जगत और वैश्विक सामरिक संतुलन पर दूरगामी प्रभाव डाल सकता है। देखा जाये तो यह विचार महज एक राजनीतिक बयान भर नहीं है, बल्कि उन गहरे भू-राजनीतिक और धार्मिक समीकरणों का संकेतक है जो आने वाले वर्षों में मुस्लिम देशों की सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था को नया रूप दे सकते हैं।
हम आपको याद दिला दें कि 18 सितंबर को पाकिस्तान-सऊदी अरब के बीच हुए “सामरिक आपसी रक्षा समझौते” (Strategic Mutual Defence Agreement) के अनुसार यदि किसी एक देश पर हमला होता है तो उसे दोनों पर आक्रमण माना जाएगा। यह मॉडल सीधे-सीधे NATO की सामूहिक रक्षा नीति की याद दिलाता है। यदि वास्तव में इस समझौते का विस्तार अन्य मुस्लिम देशों तक होता है, तो यह पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया के सामरिक संतुलन को हिला सकता है।
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हम आपको बता दें कि सऊदी अरब की सामरिक स्थिति ऊर्जा संसाधनों और धार्मिक प्रभाव के कारण पहले से ही मजबूत है। दूसरी ओर पाकिस्तान के पास परमाणु शक्ति और सैन्य कौशल है। यदि इन दोनों शक्तियों का मेल होता है और अन्य मुस्लिम राष्ट्र इससे जुड़ते हैं, तो यह एक ऐसा सैन्य ब्लॉक बना सकता है जो अमेरिका-यूरोप या रूस-चीन जैसे महाशक्तियों की रणनीति को चुनौती दे सके।
भारत के लिए भी यह घटनाक्रम चिंता का विषय है। पाकिस्तान ने हाल ही में भारत के साथ सीमित संघर्ष का हवाला देते हुए कहा कि अगर उस समय यह समझौता लागू होता, तो भारत का हमला सऊदी अरब पर हमला माना जाता। इसका सीधा अर्थ है कि भविष्य में किसी भी भारत-पाक तनाव में खाड़ी देशों का अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप संभव हो सकता है। इससे भारत की पश्चिम एशिया नीति और अधिक जटिल हो जाएगी।
साथ ही इशाक डार का यह दावा कि “पाकिस्तान एक दिन 57 इस्लामिक देशों का नेतृत्व करेगा” अपने आप में कई प्रश्न भी खड़े करता है। परंपरागत रूप से इस्लामिक दुनिया का नेतृत्व सऊदी अरब ने धार्मिक कारणों से और तुर्की ने ऐतिहासिक-राजनीतिक कारणों से करने की कोशिश की है। ईरान भी खुद को शिया इस्लाम का प्रमुख संरक्षक मानता है। ऐसे में पाकिस्तान का यह दावा नया शक्ति-संतुलन खड़ा कर सकता है। यदि यह “इस्लामिक NATO” जैसा गठबंधन वाकई खड़ा होता है, तो इसके कई प्रमुख राजनीतिक प्रभाव होंगे। जैसे- इससे खाड़ी और दक्षिण एशिया के बीच सुरक्षा सहयोग गहरा होगा। उधर, ईरान पहले से ही सऊदी अरब और पाकिस्तान दोनों के प्रति अविश्वास रखता है। एक सामूहिक इस्लामिक रक्षा संगठन ईरान को हाशिए पर डाल सकता है। साथ ही तुर्की खुद को इस्लामिक दुनिया का वैकल्पिक नेतृत्वकर्ता मानता है। ऐसे किसी सैन्य ब्लॉक में यदि उसकी भूमिका सीमित रही तो वह खुलकर विरोध कर सकता है।
देखा जाये तो अमेरिका और यूरोप के लिए यह विकास दोधारी तलवार है। एक ओर, सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच सहयोग उनके सामरिक हितों से मेल खाता है क्योंकि दोनों ही पश्चिमी देशों के लंबे समय से साझेदार रहे हैं। लेकिन दूसरी ओर, यदि यह गठबंधन स्वतंत्र शक्ति-केंद्र के रूप में उभरता है तो यह पश्चिमी नियंत्रण से बाहर जाकर अपनी अलग विदेश नीति बना सकता है। वहीं, चीन के लिए यह अवसर है। चीन की “बेल्ट एंड रोड” पहल और पाकिस्तान के साथ गहरी साझेदारी पहले से ही स्थापित है। यदि यह गठबंधन मजबूत होता है तो चीन इसे भारत और अमेरिका की बढ़ती नज़दीकी के मुकाबले एक रणनीतिक संतुलन के रूप में इस्तेमाल कर सकता है।
हम आपको यह भी बता दें कि इशाक डार ने आर्थिक शक्ति बनने की बात भी कही है। देखा जाये तो कोई भी सैन्य गठबंधन तब तक टिकाऊ नहीं होता जब तक उसके पास वित्तीय और औद्योगिक शक्ति न हो। मुस्लिम देशों में संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं, लेकिन उनका सामूहिक उपयोग अब तक नहीं हो पाया। यदि यह संगठन केवल सैन्य सुरक्षा तक सीमित नहीं रहकर आर्थिक सहयोग का ढांचा भी बनाता है, तो यह यूरोपीय संघ जैसा स्वरूप ग्रहण कर सकता है।
देखा जाये तो पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच रक्षा समझौता, जिसे “नए NATO” की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, अभी शुरुआती चरण में है। लेकिन इसके निहितार्थ गहरे हैं। यह न केवल भारत-पाक संबंधों में नई जटिलताएँ पैदा करेगा बल्कि इस्लामिक जगत के भीतर नेतृत्व की नई प्रतिस्पर्धा भी आरंभ करेगा। अमेरिका, चीन और रूस जैसे महाशक्तियाँ इसे अपने हितों के हिसाब से प्रभावित करने की कोशिश करेंगी।
यदि यह गठबंधन केवल रक्षा तक सीमित रहता है, तो इसका प्रभाव सीमित रहेगा; लेकिन यदि यह राजनीतिक और आर्थिक मंच का रूप ले लेता है, तो यह आने वाले दशक में वैश्विक शक्ति-संतुलन को बदलने वाला सबसे बड़ा प्रयोग हो सकता है। इस्लामिक जगत की राजनीति में यह बदलाव स्थायी होगा या क्षणिक, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि पाकिस्तान वास्तव में अपनी घोषित महत्वाकांक्षा यानि इस्लामिक नेतृत्व को किस हद तक ठोस नीतियों और व्यावहारिक रणनीति में बदल पाता है।