भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर और डीवाई चंद्रचूड़ शुक्रवार को एक देश, एक चुनाव (One Nation, One Election) विधेयक की समीक्षा कर रही संसदीय समिति के समक्ष पेश हुए। दोनों न्यायविदों का मानना है कि ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की अवधारणा संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करती है, लेकिन उन्होंने प्रस्तावित कानून में चुनाव आयोग को दी गई शक्ति की सीमा पर सवाल उठाया है। दोनों न्यायविदों ने संसदीय समिति के समक्ष अपने सुझाव और आपत्तियाँ प्रस्तुत कीं।
हम आपको याद दिला दें कि मोदी सरकार ने वर्ष 2024 के अंत में ‘एक देश, एक चुनाव’ की अवधारणा पर एक विधेयक का मसौदा प्रस्तुत किया, जिसका उद्देश्य लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ आयोजित करना है। इस विधेयक पर विचार करने के लिए भाजपा सांसद पीपी चौधरी की अध्यक्षता में संसद की एक संयुक्त समिति (JPC) का गठन हुआ, जो विभिन्न विशेषज्ञों, पूर्व न्यायाधीशों और संवैधानिक विद्वानों से परामर्श कर रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में पूर्व प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और जेएस खेहर ने अपनी संवैधानिक राय और सुझाव समिति के समक्ष प्रस्तुत किए।
न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ के सुझाव और दृष्टिकोण के बारे में बताएं तो उन्होंने कहा कि एक साथ चुनाव कराना भारत के संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता। उन्होंने याद दिलाया कि 1951 से 1967 तक भारत में यही प्रणाली लागू थी, अतः इसे संविधान-विरोधी नहीं कहा जा सकता। हालांकि उन्होंने उस प्रस्तावित प्रावधान का विरोध किया जिसमें चुनाव आयोग को विधानसभा चुनाव स्थगित करने का अधिकार दिया गया है। उन्होंने कहा कि इससे आयोग को अनियंत्रित शक्ति मिल जाती है, जो संविधान के संतुलन सिद्धांत के विपरीत है। उन्होंने कहा कि चुनाव स्थगन केवल “राष्ट्रीय आपातकाल” या “गंभीर सार्वजनिक व्यवधान” जैसी परिस्थितियों में ही होना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसी स्थगन प्रक्रिया संसद के दोनों सदनों की अनुमति से ही संभव होनी चाहिए। साथ ही उन्होंने कहा कि स्थगन की अधिकतम समयसीमा विधेयक में स्पष्ट रूप से परिभाषित होनी चाहिए।
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डीवाई चंद्रचूड़ ने इस पर चिंता जताई कि एकसाथ चुनाव होने पर राष्ट्रीय दलों को लाभ होगा और क्षेत्रीय दलों की चुनावी क्षमता प्रभावित होगी। तथा इससे संघीय ढांचे की राजनीतिक विविधता कमज़ोर हो सकती है। चंद्रचूड़ ने राष्ट्रीय दलों की वित्तीय मज़बूती की तुलना में क्षेत्रीय/छोटे दलों के साथ पक्षपात होने की आशंका भी जताई। इसके अलावा, विधेयक के मसौदे में यह सुझाया गया था कि चुनाव आयोग को संविधान के भाग XV (चुनावों से संबंधित) में संशोधन की अनुशंसा करने का अधिकार मिलना चाहिए, चंद्रचूड़ ने इसे असंवैधानिक और अतार्किक बताया, क्योंकि यह कार्य केवल संसद का है।
वहीं न्यायमूर्ति जेएस खेहर के सुझाव और चिंताओं की बात करें तो आपको बता दें कि उन्होंने भी एक साथ चुनाव के विचार का समर्थन किया, बशर्ते कि इसके क्रियान्वयन की प्रक्रिया स्पष्ट, पारदर्शी और संतुलित हो। साथ ही खेहर ने चेतावनी दी कि यदि कानून की भाषा अस्पष्ट रही, तो न्यायपालिका को बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ेगा, जिससे राजनीतिक प्रक्रिया न्यायिक प्रक्रिया में तब्दील हो जाएगी। उन्होंने विधेयक की भाषा को सटीक, स्पष्ट और विवादमुक्त रखने की सलाह दी। खेहर ने यह भी रेखांकित किया कि यदि इस प्रक्रिया में राज्य विधानसभाओं को भंग करना पड़े, तो इसके लिए राज्य विधानसभाओं की स्वायत्तता का सम्मान आवश्यक है।
हम आपको यह भी बता दें कि इससे पहले भारत के दो अन्य पूर्व प्रधान न्यायाधीश यूयू ललित और रंजन गोगोई भी समिति के समक्ष उपस्थित हो चुके हैं। उन दोनों ने भी एक साथ चुनावों की संवैधानिकता पर सवाल नहीं उठाया था लेकिन विधेयक के कुछ पहलुओं पर सवाल उठाए और सुझाव दिए थे।
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बहरहाल, देखा जाये तो पूर्व प्रधान न्यायाधीशों का मत स्पष्ट करता है कि “एक देश, एक चुनाव” की परिकल्पना संविधान-विरोधी नहीं है, लेकिन इसके प्रभावी, पारदर्शी और न्यायसंगत क्रियान्वयन के लिए गहरी विधिक विवेकशीलता आवश्यक है। उनके सुझाव दर्शाते हैं कि चुनाव आयोग पर संसदीय नियंत्रण बना रहे, क्षेत्रीय दलों की शक्ति संरक्षित हो, संवैधानिक संतुलन न बिगड़े और न्यायपालिका को राजनीतिक विवादों में न घसीटा जाए। इसलिए सरकार को चाहिए कि इन सुझावों को विधेयक के अंतिम प्रारूप में समुचित स्थान दे, ताकि यह ऐतिहासिक पहल संविधान, लोकतंत्र और संघवाद, तीनों की भावना के अनुरूप हो।