छत्तीसगढ़ के बस्तर से आई यह खबर कि प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने अपने सशस्त्र संघर्ष को अस्थायी रूप से रोकने का ऐलान किया है, न केवल सुरक्षा तंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण संकेत है बल्कि सरकार की दीर्घकालिक नीति की सफलता का भी प्रमाण है। माओवादियों का यह कथित बयान तब सामने आया है जब उनके शीर्ष नेता नम्बाला केशव राव उर्फ़ बसवराजू की मौत के बाद संगठन को बड़ा धक्का लगा है। यह केवल नेतृत्व की क्षति भर नहीं है, बल्कि उन सतत अभियानों का परिणाम है जिनमें सुरक्षा बलों ने वर्षों से कठोर दबाव बनाए रखा है।
यह घटना गृह मंत्री अमित शाह द्वारा व्यक्त उस संकल्प को और ठोस बनाती है जिसमें उन्होंने मार्च 2026 तक भारत को नक्सल समस्या से मुक्त कराने का लक्ष्य रखा था। दरअसल, सरकार की रणनीति दोहरी रही है। एक ओर लगातार और लक्षित सुरक्षा अभियान, दूसरी ओर आत्मसमर्पण और पुनर्वास के द्वार खोलना। इसका परिणाम यह है कि जिन जिलों को कभी ‘रेड कॉरिडोर’ कहा जाता था, उनकी संख्या लगातार घट रही है और हिंसक घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आई है।
मोदी सरकार माओवाद को केवल सुरक्षा चुनौती मानकर नहीं चल रही है बल्कि विकास की कमी, रोज़गार और बुनियादी सुविधाओं की अनुपलब्धता जैसे कारकों को भी समानांतर रूप से संबोधित कर रही है। यही वजह है कि आज माओवादी नेतृत्व स्वयं संवाद की राह पर विचार करने को विवश दिखाई दे रहा है। यह स्थिति सरकार की दीर्घकालिक नीति की सफलता की गवाही है।
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हम आपको बता दें कि प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने शांति वार्ता को सुगम बनाने के लिए अपने सशस्त्र संघर्ष को अस्थायी रूप से स्थगित करने की घोषणा की है, लेकिन साथ ही सरकार से औपचारिक तौर पर एक महीने तक सुरक्षा अभियानों को रोकने का अनुरोध भी किया है। माओवादियों ने सोशल मीडिया पर मंगलवार को प्रसारित एक कथित बयान में सरकार से इस मुद्दे पर अपने फैसले को इंटरनेट और रेडियो सहित सरकारी समाचार माध्यमों के जरिये साझा करने की भी अपील की है। माओवादियों की केंद्रीय समिति के प्रवक्ता अभय के नाम से 15 अगस्त को जारी किया गया यह दो-पृष्ठ का बयान, छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में 21 मई को सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में प्रतिबंधित भाकपा (माओवादी) के महासचिव नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू के मारे जाने के लगभग चार महीने बाद आया है।
माओवादियों ने बयान में कहा है कि उन्होंने पहले सरकार के सामने संघर्ष विराम का प्रस्ताव रखा था और संगठन के शीर्ष नेतृत्व के साथियों से परामर्श के लिए एक महीने का समय मांगा था। लेकिन दुर्भाग्य से केंद्र सरकार ने इस पर अपना अनुकूल रुख नहीं दिखाया, बल्कि उसने अपनी गतिविधियों को और तेज कर दिया है। माओवादियों ने अपने कथित बयान में कहा है, ‘‘हमारी पार्टी के माननीय महासचिव (मुठभेड़ में मारे गए बसवराजू) की पहल पर शुरू हुई शांति वार्ता प्रक्रिया आगे ले जाने के तहत हम यह स्पष्ट कर रहे हैं कि बदले हुए विश्व एवं देश की परिस्थितियों के अलावा देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से लेकर वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा हमें हथियार छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने के लिए किये जा रहे अनुरोधों के मद्देनजर हमने हथियार छोड़ने का निर्णय लिया है। हमने हथियारबंद संघर्ष को अस्थायी रूप से रोकने का निर्णय लिया है।’’
कथित बयान में कहा गया है, ‘‘इस विषय पर प्राथमिक रूप से सरकार के साथ वीडियो कॉल के जरिये विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए भी हम तैयार हैं। इसलिए हम एक बार और स्पष्ट कर रहे हैं की सरकार को एक माह के लिए औपचारिक रूप से संघर्ष रोकने की घोषणा करके और खोजी अभियानों को रुकवाकर शांति वार्ता प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए।’’ बयान में यह भी कहा गया है कि कई कारणों से इसे देरी से जारी किया गया।
इस बयान को लेकर राज्य के उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने संवाददाताओं से कहा कि बयान की सत्यता की जांच की जा रही है और माओवादियों के लिए सबसे अच्छा तरीका आत्मसमर्पण करना और पुनर्वास का लाभ प्राप्त करना है। हम आपको बता दें कि विजय शर्मा गृह विभाग भी संभालते हैं। शर्मा ने कहा, ‘‘…’संघर्ष विराम’ शब्द बेहद आपत्तिजनक है, क्योंकि युद्ध जैसी कोई स्थिति नहीं है, जिसके लिए इसकी आवश्यकता हो। लोकतंत्र में बातचीत सशर्त नहीं हो सकती, फिर भी उन्होंने एक बार फिर पूर्व शर्तें रख दी हैं।’’ उन्होंने कहा कि बयान की पुष्टि के बाद सरकार के भीतर चर्चा की जाएगी।
दूसरी ओर, माओवादियों के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए बस्तर क्षेत्र के पुलिस महानिरीक्षक सुंदरराज पी ने बताया कि पुलिस ने हथियार डालने और शांति वार्ता की संभावना के बारे में भाकपा (माओवादी) केंद्रीय समिति की ओर से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति का संज्ञान लिया है। उन्होंने कहा कि विज्ञप्ति की प्रमाणिकता की पुष्टि की जा रही है और इसकी विषयवस्तु की सावधानीपूर्वक जांच की जा रही है। उन्होंने आगे कहा कि भाकपा (माओवादी) के साथ बातचीत या संपर्क पर कोई भी निर्णय पूरी तरह से सरकार का है, जिसपर निर्णय स्थिति और परिस्थितियों पर उचित विचार और आकलन के बाद लिया जाएगा।
देखा जाये तो माओवादियों के इस बयान के बावजूद सतर्कता आवश्यक है क्योंकि इतिहास बताता है कि माओवादी अक्सर “संघर्ष विराम” जैसी घोषणाओं को रणनीतिक अवकाश की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। अतः अंतिम विजय तभी सुनिश्चित होगी जब यह घोषणा वास्तविक आत्मसमर्पण और पुनर्वास में बदले। साथ ही यह भी याद रखना होगा कि स्थायी शांति तभी संभव है जब प्रभावित क्षेत्रों में विकास और न्याय की प्रक्रिया निरंतर और पारदर्शी रूप से आगे बढ़े।
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि माओवाद अब अपने सबसे कमजोर दौर से गुजर रहा है और सरकार की निर्णायक रणनीति ने उसे मुख्यधारा की ओर धकेल दिया है। यदि यह सिलसिला कायम रहता है तो मार्च 2026 तक नक्सल-मुक्त भारत का सपना केवल नारा नहीं, बल्कि एक साकार हकीकत बनकर सामने आ सकता है।