लोकसभा चुनाव 2024 की राजनीतिक जंग ने सत्ता की बाज़ी तो भाजपा के हाथ में रखी, पर विपक्ष को भी काफी ताकत प्रदान कर दी थी। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यह साफ़ संकेत दिया था कि विपक्ष अब राष्ट्रीय स्तर पर फिर से अपने पैरों पर खड़ा होने की ताकत जुटा चुका है। लेकिन महज़ डेढ़ साल बाद ही यह तस्वीर धुंधली पड़ने लगी है। हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की अप्रत्याशित जीत ने विपक्ष की उम्मीदों को बड़ा झटका दिया तो दूसरी ओर झारखंड और जम्मू-कश्मीर चुनावों में विपक्ष की जीत उसमें वैसा जोश नहीं भर पाई जैसी कि अपेक्षा की जा रही थी।
अब जब बिहार का रण सामने है, तो यह महज़ एक राज्य का चुनाव नहीं बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करने वाला युद्धक्षेत्र बन चुका है। यह वही बिहार है जहाँ कभी लालू प्रसाद यादव की समाजवादी राजनीति ने दिल्ली तक का एजेंडा तय किया था और अब जहाँ यह सवाल गूंज रहा है कि क्या तेजस्वी यादव की आरजेडी दो दशक बाद सत्ता में वापसी कर सकेगी? या क्या भाजपा पहली बार राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी?
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इसके अलावा, बिहार का चुनाव इस बार विपक्षी गठबंधन INDIA ब्लॉक के लिए अस्तित्व की परीक्षा जैसा है। 2024 में तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद विपक्ष ने राष्ट्रीय स्तर पर लड़ाई को कड़ी टक्कर तक पहुंचाया था। अब सवाल यह है कि क्या वह वही जज़्बा और समन्वय बनाए रख पाएगा या नहीं? वैसे हालात विपक्ष के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि भाजपा-जेडीयू गठबंधन ने सत्ता की ताकत का पूरा इस्तेमाल कर मतदाताओं को लुभाने में बड़ी हद तक सफलता प्राप्त की है। महिलाओं के लिए आर्थिक और सामाजिक योजनाएँ, मोदी की सर्वव्यापक छवि और नीतीश कुमार का संगठनात्मक कौशल और जातिगत समीकरण, ये सब मिलकर एक ठोस समीकरण बनाते हैं। जातीय गणित का यह गठजोड़ पहले भी कई बार कठिन हालातों में भाजपा-जेडीयू गठबंधन को सत्ता में वापस लाने में सफल रहा है।
हालांकि विपक्ष ने भी अपनी तैयारियों में कोई कमी नहीं छोड़ी है। राहुल गांधी की ‘वोट अधिकार यात्रा’ के ज़रिए कांग्रेस, आरजेडी, भाकपा (माले) और वीआईपी जैसी पार्टियाँ एक मंच पर आईं। तेजस्वी यादव लगातार जनसभाएँ कर रहे हैं और नीतीश कुमार की “अनिश्चित मानसिक अवस्था” पर तंज कसकर माहौल गर्मा रहे हैं। वोटर सूची में गड़बड़ी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से मिली राहत ने भी गठबंधन को नैतिक बल दिया है। लेकिन, सवाल वही है कि क्या यह जोश वोटों में तब्दील हो पाएगा?
दूसरी ओर, भाजपा-जेडीयू का जातीय आधार मज़बूत है। सवर्णों से लेकर अति पिछड़ों तक, गठबंधन ने ऐसा सामाजिक ढाँचा तैयार किया है जिसमें विपक्ष के लिए सेंध लगाना बेहद कठिन है। वहीं, विपक्षी ‘इंद्रधनुष गठबंधन’ के पास एकता की भावना तो है, पर सामाजिक धरातल पर उसका असर कितना हुआ है, यह अभी अनिश्चित है।
हम आपको याद दिला दें कि पाँच साल पहले जब आरजेडी ने सत्ता पक्ष को कड़ी चुनौती दी थी, तब हालात अलग थे। कोविड राहत को लेकर नाराज़गी थी और चिराग़ पासवान ने नीतीश कुमार के खिलाफ बग़ावत का बिगुल बजाकर भाजपा-जेडीयू की एकता में दरार डाल दी थी। मगर इस बार समीकरण पलट चुके हैं। अब चिराग़ पासवान भाजपा-जेडीयू गठबंधन का हिस्सा हैं और यह सत्ता पक्ष के लिए बड़ी रणनीतिक जीत मानी जा रही है।
उधर, विपक्ष की उम्मीदें अब दो मोर्चों पर टिकी हैं। पहला- नीतीश कुमार के पारंपरिक मुस्लिम वोटरों की नाराज़गी, जो वक्फ़ कानून और भाजपा नेताओं के ‘सांप्रदायिक’ बयानों से असंतुष्ट बताए जा रहे हैं। दूसरा— अति पिछड़ों में नीतीश की घटती विश्वसनीयता, क्योंकि अब यह संशय बढ़ रहा है कि क्या चुनाव बाद भी नीतीश मुख्यमंत्री बने रहेंगे या नहीं। तेजस्वी यादव इसी असमंजस को हवा दे रहे हैं, ताकि अति पिछड़े तबके में एक वैकल्पिक उम्मीद पैदा की जा सके। इसके साथ ही, जन सुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर का असर भी चुनावी गणित को दिलचस्प बना सकता है। उनकी संगठनात्मक पकड़ और भाजपा-विरोधी भाषणशैली से विपक्ष को परोक्ष लाभ मिल सकता है।
देखा जाये तो बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरणों पर टिकी रही है, पर इस बार ‘विकास बनाम जाति’ का नैरेटिव भी उतनी ही ताकत से उभर रहा है। भाजपा लगातार यह प्रचार कर रही है कि उसकी सरकार ने मुफ्त राशन, आवास, उज्ज्वला, जनधन जैसी योजनाओं के ज़रिए “गरीबों को सम्मान और अवसर” दिया है। वहीं, विपक्ष इस तर्क को चुनौती देता है कि ये योजनाएँ गरीबों को आत्मनिर्भर नहीं बल्कि राज्य पर निर्भर बना रही हैं। तेजस्वी यादव बेरोज़गारी और महंगाई जैसे मुद्दों को केंद्र में लाकर यह बताना चाहते हैं कि “विकास का मॉडल सिर्फ़ घोषणाओं से नहीं चलता।”
माना जा रहा है कि 2025 का बिहार चुनाव न सिर्फ़ राज्य की राजनीति बल्कि विपक्ष की राष्ट्रीय स्तर पर प्रासंगिकता भी तय करेगा। अगर INDIA गठबंधन यहाँ अच्छा प्रदर्शन करता है, तो यह संकेत होगा कि विपक्ष अब भी मुकाबले में है। लेकिन अगर भाजपा-जेडीयू का गठबंधन एक बार फिर आसानी से जीत जाता है, तो यह विपक्ष के मनोबल के लिए बड़ा झटका साबित होगा। वैसे, अभी के हालात देखकर यही कहा जा सकता है कि यह चुनाव एकतरफा नहीं होगा। तेजस्वी यादव और राहुल गांधी के नेतृत्व वाला गठबंधन भले सत्ता से दूर दिखे, पर वह भाजपा से भिड़ने की पूरी तैयारी कर चुके हैं। देखना होगा कि मतदाता किस पार्टी को कितनी ताकत देते हैं।