Wednesday, October 15, 2025
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Prabhasakshi NewsRoom: Modi-Trump की फोन वार्ता के तुरंत बाद आया अमेरिकी दूतावास का बयान- Pakistan को AIM-120 Missile नहीं देंगे

अमेरिकी रक्षा विभाग की एक सूची जारी होने के बाद यह खबर तेजी से फैली कि अमेरिका ने पाकिस्तान को नई मिसाइलें— विशेष रूप से AIM-120 “एडवांस्ड मीडियम रेंज एयर-टू-एयर मिसाइल्स” (AMRAAM) देने का अनुबंध किया है। इस रिपोर्ट ने स्वाभाविक रूप से भारत में चिंता की लहर पैदा कर दी, क्योंकि ये वही मिसाइलें हैं जिन्हें पाकिस्तान वायुसेना ने 2019 के बालाकोट हमलों के बाद भारत के खिलाफ हवाई संघर्ष में प्रयोग किया था। लेकिन अब अमेरिकी दूतावास ने न केवल इस खबर को “भ्रामक” बताया है बल्कि यह भी स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान को कोई नई मिसाइल या उन्नयन सहायता नहीं दी जा रही है, यह मात्र एक पुराने अनुबंध के “सस्टेनमेंट और स्पेयर पार्ट्स” से संबंधित तकनीकी संशोधन है।
यह स्पष्टीकरण ऐसे समय में आया है जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच वार्ता ने वैश्विक और विशेष रूप से दक्षिण एशियाई सामरिक परिदृश्य पर नई हलचल पैदा की है। सवाल यह है कि क्या इस स्पष्टीकरण को अमेरिका की दक्षिण एशिया नीति में एक बदलाव के संकेत के रूप में देखा जा सकता है? क्या वाकई वाशिंगटन अब पाकिस्तान की बजाय भारत को प्राथमिकता दे रहा है?
देखा जाये तो अमेरिकी दूतावास का यह त्वरित स्पष्टीकरण अपने आप में एक राजनयिक संदेश है। दक्षिण एशिया में शक्ति-संतुलन की बारीक समझ रखने वाला अमेरिका यह जानता है कि पाकिस्तान को हथियार सहायता का कोई भी संकेत भारत में गहरी असंतुष्टि पैदा करता है, विशेष रूप से ऐसे समय में जब भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी क्वॉड (QUAD), इंडो-पैसिफिक और रक्षा तकनीक सहयोग के नए शिखर पर है।
अमेरिकी प्रशासन का यह बयान केवल “साफ़गोई” नहीं बल्कि एक सामरिक संकेत है— यह दिखाता है कि वाशिंगटन अब उन भ्रमित संकेतों से बचना चाहता है जो भारत के भरोसे को कमजोर कर सकते हैं। यदि अमेरिका वास्तव में पाकिस्तान को नए मिसाइल सिस्टम या एएमआरएएम जैसे हथियार दे देता, तो यह पाकिस्तान की एफ-16 क्षमताओं को पुनर्जीवित करता और भारत की हवाई बढ़त पर प्रतिकूल असर डालता। इसलिए यह स्पष्टीकरण उस दिशा में एक रोकथामकारी कदम भी है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि यह “स्पष्टीकरण” मोदी–ट्रंप वार्ता के तुरंत बाद आया। भले ही इसे संयोग कहा जा सकता है, परंतु राजनयिक समय-निर्धारण में संयोग बहुत कम होते हैं। अमेरिकी विदेश नीति में प्रतीकों का बड़ा महत्व होता है और भारत को यह संदेश देना स्पष्ट उद्देश्य प्रतीत होता है कि “वाशिंगटन नई दिल्ली की चिंताओं को समझता और प्राथमिकता देता है।” हम आपको बता दें कि मोदी-ट्रंप वार्ता के दौरान मोदी ने गाजा के लिए अमेरिका की मध्यस्थता वाली शांति योजना के पहले चरण की ‘सफलता’ पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को बधाई दी और शत्रुता समाप्त करने के उनके प्रयासों के लिए उनकी सराहना की। मोदी ने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा कि उन्होंने और ट्रंप ने व्यापार वार्ता में ‘अच्छी प्रगति’ की भी समीक्षा की। पिछले तीन हफ्तों में मोदी और ट्रंप के बीच फोन पर यह दूसरी बातचीत थी। गुरुवार को मोदी-ट्रंप वार्ता के ठीक बाद अमेरिकी दूतावास द्वारा पाकिस्तान-सम्बंधित किसी भी मिसाइल डील के अस्तित्व से इंकार करना, अमेरिका की सामरिक प्राथमिकताओं के पुन:संरेखण (realignment) का संकेत देता है। यह अमेरिका की “इंडो-पैसिफिक रणनीति” के उस हिस्से से मेल खाता है जिसमें भारत को एक केंद्रीय संतुलन-शक्ति के रूप में देखा जाता है, न कि पाकिस्तान जैसे सीमित रणनीतिक उपयोग वाले साझेदार के रूप में।
हम आपको एक बार फिर बता दें कि अमेरिका ने साफ कहा है कि पाकिस्तान को जो भी अनुबंध-संबंधी सेवा दी जा रही है, वह “सस्टेनमेंट और स्पेयर पार्ट्स” तक सीमित है। इसका अर्थ है कि यह केवल पुराने F-16 विमानों की रखरखाव व्यवस्था है न कि नए हथियार या तकनीक प्रदान करना। इससे पाकिस्तान की वर्तमान सामरिक क्षमता में कोई गुणात्मक सुधार नहीं होगा। देखा जाये तो यह स्थिति भारत के लिए आश्वस्त करने वाली है, क्योंकि पाकिस्तान के सैन्य ढांचे की तकनीकी निर्भरता अमेरिकी प्लेटफॉर्म पर रही है। लेकिन अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद इस निर्भरता में गिरावट आई है और पाकिस्तान अब चीन की ओर अधिक झुक चुका है। ऐसे में अमेरिका के लिए पाकिस्तान में निवेश की उपयोगिता सीमित हो गई है।
हम आपको बता दें कि दक्षिण एशिया में अमेरिकी रणनीति का मूल उद्देश्य संतुलन बनाए रखना रहा है। शीतयुद्ध के दौर में यह संतुलन पाकिस्तान की ओर झुका हुआ था, परंतु 21वीं सदी के दूसरे दशक में भारत की आर्थिक, तकनीकी और कूटनीतिक शक्ति ने समीकरण बदल दिए हैं। अब अमेरिका का दीर्घकालिक लक्ष्य चीन के विरुद्ध एक स्थिर, भरोसेमंद साझेदार ढूंढ़ना है और वह साझेदार केवल भारत हो सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में, भारत की आपत्तियों को तुरंत ध्यान में लेकर अमेरिकी दूतावास द्वारा सफाई देना इस नीति के स्थायी पुनर्गठन का संकेत है।
इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि अमेरिका ने इस स्पष्टीकरण के माध्यम से एक राजनयिक “संदेश” भारत को भेजा है कि वाशिंगटन अब दक्षिण एशिया में नई दिल्ली की सामरिक संवेदनशीलताओं को समझता है और उनका सम्मान करता है। अमेरिका को यह भी भलीभांति ज्ञात है कि भारत अब केवल एक “बाज़ार” नहीं, बल्कि वैश्विक सुरक्षा और तकनीकी आपूर्ति श्रृंखला का एक केन्द्रीय स्तंभ है। इसलिए पाकिस्तान को किसी भी प्रकार की नई सैन्य सहायता देना न केवल भारत को नाराज़ करता बल्कि अमेरिका की अपनी इंडो-पैसिफिक रणनीति को भी कमजोर करता। इस दृष्टि से, अमेरिकी दूतावास का बयान केवल एक “मीडिया स्पष्टीकरण” नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया की सामरिक राजनीति में नए यथार्थ का संकेत है कि अब अमेरिका की दक्षिण एशिया नीति का केंद्र नई दिल्ली है, इस्लामाबाद नहीं।
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