Sunday, October 19, 2025
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Prabhasakshi NewsRoom: United Nation में Palestine के साथ फिर खड़ा हुआ भारत, अमेरिकी विरोध को कर दिया दरकिनार

संयुक्त राष्ट्र महासभा में 19 सितंबर को हुए मतदान ने भारत की विदेश नीति और उसकी सामरिक प्राथमिकताओं को एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्पष्ट कर दिया है। इस मतदान में भारत ने फिलस्तीन के समर्थन में खड़ा होकर उस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया, जिसके अंतर्गत फिलस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास को वीडियो संदेश के माध्यम से महासभा को संबोधित करने की अनुमति दी गई। अमेरिका द्वारा फिलस्तीन प्रतिनिधियों को वीज़ा से वंचित कर दिए जाने की पृष्ठभूमि में यह कदम और भी अहम हो गया था।
इससे कुछ ही समय पहले, भारत ने न्यूयॉर्क घोषणा प्रस्ताव (New York Declaration) का भी समर्थन किया था, जो फिलस्तीन के अधिकारों और दो-राष्ट्र समाधान की दिशा में अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धता को दोहराता है। इन दोनों घटनाओं को मिलाकर देखा जाए तो साफ़ है कि भारत फिलस्तीन के मुद्दे पर अपनी ऐतिहासिक नीति को न केवल कायम रखे हुए है बल्कि उसे नए सिरे से वैश्विक संदर्भों में प्रासंगिक बना रहा है।
हम आपको बता दें कि 1988 में भारत उन शुरुआती देशों में था जिसने फिलस्तीन को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता दी थी। तब से लेकर अब तक नई दिल्ली ने लगातार दो-राष्ट्र समाधान की वकालत की है। हालांकि, पिछले दो दशकों में भारत और इज़राइल के बीच रक्षा, कृषि, साइबर सुरक्षा और नवाचार जैसे क्षेत्रों में गहरे सहयोग ने यह प्रश्न उठाया कि क्या भारत फिलस्तीन पर अपने पुराने रुख से पीछे हट रहा है। किंतु संयुक्त राष्ट्र में हालिया वोटिंग और न्यूयॉर्क घोषणा में भारत के समर्थन ने यह सिद्ध कर दिया कि नई दिल्ली संतुलित नीति अपनाते हुए दोनों पक्षों के साथ अपने संबंध बनाए रखना चाहती है।
देखा जाये तो भारत का यह निर्णय केवल कूटनीतिक संकेत भर नहीं है। इसमें कई सामरिक निहितार्थ छिपे हैं। जब अमेरिका फिलस्तीन को राष्ट्र के रूप में मान्यता देने से स्पष्ट इंकार कर रहा है, तब भारत का यह वोट दर्शाता है कि वह किसी भी दबाव से परे रहकर अपनी स्वतंत्र विदेश नीति चलाना चाहता है। इसके अलावा, अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के कई देशों ने फिलस्तीन प्रस्ताव का समर्थन किया। भारत का साथ जुड़ने से यह संदेश गया कि विश्व राजनीति में “वैश्विक दक्षिण” अपनी स्वतंत्र और न्यायोन्मुख भूमिका निभा रहा है। वहीं खाड़ी देशों के साथ भारत के गहरे आर्थिक संबंध हैं। फिलस्तीन के पक्ष में खड़ा होना उन रिश्तों को मजबूत करता है और भारत को एक भरोसेमंद साझेदार के रूप में स्थापित करता है।
इस बीच, यह प्रश्न स्वाभाविक है कि भारत का यह कदम इज़राइल के साथ संबंधों को कैसे प्रभावित करेगा? देखा जाये तो इज़राइल और भारत के बीच आज रक्षा खरीद, खुफिया साझेदारी और कृषि नवाचार जैसे क्षेत्रों में अभूतपूर्व सहयोग है। हालांकि इज़राइल भारत के हालिया रुख से असहज अवश्य हो सकता है, लेकिन द्विपक्षीय रिश्ते इतनी गहराई तक पहुँच चुके हैं कि किसी एक संयुक्त राष्ट्र मतदान से उन पर गहरा असर पड़ने की संभावना कम है। दरअसल, इज़राइल जानता है कि भारत के लिए यह वोट उसकी “सिद्धांत आधारित विदेश नीति” का हिस्सा है, न कि इज़राइल-विरोधी भावनाओं का। यही कारण है कि भारत दोनों पक्षों को साथ लेकर चलने की नीति पर कायम रह सकता है।
देखा जाये तो भारत का यह रुख उसके लिए रणनीतिक रूप से लाभकारी सिद्ध हो सकता है। एक तो भारत में मुस्लिम आबादी का एक बड़ा हिस्सा फिलस्तीन के सवाल से भावनात्मक रूप से जुड़ा है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर फिलस्तीन का समर्थन करना घरेलू स्तर पर भी एक संतुलित संदेश देता है। इसके अलावा, भारत खुद को “विश्व गुरु” और न्यायोन्मुख शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहता है। फिलस्तीन के समर्थन में खड़ा होना इस छवि को मजबूती देता है। साथ ही पश्चिम एशिया में स्थिरता भारत की ऊर्जा सुरक्षा और प्रवासी भारतीयों के हितों के लिए बेहद अहम है। फिलस्तीन मुद्दे पर संतुलित रुख से भारत क्षेत्रीय शांति की दिशा में विश्वसनीय मध्यस्थ के रूप में अपनी भूमिका पेश कर सकता है।
देखा जाये तो संयुक्त राष्ट्र में फिलस्तीन के समर्थन में भारत का हालिया वोट और न्यूयॉर्क घोषणा प्रस्ताव में दिया गया समर्थन यह दर्शाता है कि नई दिल्ली किसी भी दबाव में झुकने वाली शक्ति नहीं है। यह निर्णय भारत की स्वतंत्र विदेश नीति, न्यायोन्मुख दृष्टिकोण और वैश्विक दक्षिण की आवाज़ बनने की आकांक्षा का प्रमाण है। जहाँ एक ओर यह कदम अमेरिका और इज़राइल की नीतियों से भिन्न है, वहीं दूसरी ओर यह भारत की संतुलित कूटनीति को भी प्रकट करता है, जिसमें वह इज़राइल के साथ अपने रणनीतिक सहयोग को बनाए रखते हुए फिलस्तीन के अधिकारों के लिए भी दृढ़ता से खड़ा है।
बहरहाल, भारत का यह संतुलित और सिद्धांत-आधारित रुख आने वाले वर्षों में न केवल उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि को और मज़बूत करेगा, बल्कि उसे मध्य-पूर्व की जटिल राजनीति में एक निर्णायक और विश्वसनीय शक्ति के रूप में भी स्थापित करेगा।
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