इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू गुरुवार को जब संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक सत्र में भाग लेने जा रहे थे तब उनका विमान न्यूयॉर्क की ओर एक असामान्य मार्ग अपनाते हुए रवाना हुआ, जिसमें उसने कई यूरोपीय देशों से गुजरने से परहेज़ किया। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, फ्रांसीसी अधिकारियों ने इज़राइली विमान को अपने हवाई क्षेत्र के उपयोग की अनुमति दी थी। लेकिन इसके बावजूद, हवाई ट्रैकिंग जानकारी से पता चला कि नेतन्याहू के विमान ने दक्षिण की ओर जाने वाला मार्ग अपनाया। यह मार्ग ग्रीस और इटली से होकर गुजरा, फिर जिब्राल्टर की खाड़ी के दक्षिण से होकर उसने अटलांटिक महासागर पार किया। इस परिक्रामी मार्ग को इसीलिए अपनाया गया ताकि उन देशों से बचा जा सके जहाँ उनके खिलाफ कथित युद्ध अपराधों के लिए गिरफ्तारी वारंट लागू हो सकता है।
हम आपको बता दें कि इस सप्ताह ब्रिटेन, फ्रांस और पुर्तगाल सहित कई देशों ने फिलिस्तीनी राज्य की आधिकारिक मान्यता दी, जिसे नेतन्याहू ने कड़े शब्दों में अस्वीकार किया। इसके अलावा, मई में आयरलैंड और स्पेन ने पहले ही फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता दी थी। हम आपको यह भी याद दिला दें कि पिछले नवंबर में अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय (ICC) ने नेतन्याहू और इजराइल के तत्कालीन रक्षा मंत्री योआव गैलंट के खिलाफ गाजा सैन्य अभियान के दौरान कथित युद्ध अपराधों को लेकर गिरफ्तारी वारंट जारी किए थे। हाल ही में, स्पेन ने ICC की जांच का समर्थन किया और गाजा में संभावित मानवाधिकार उल्लंघनों की जांच के लिए एक टीम का गठन किया, जो इज़राइल पर दबाव डालने के उद्देश्य से है कि वह संघर्ष समाप्त करे।
देखा जाये तो नेतन्याहू की इस उड़ान ने न केवल कूटनीतिक रणनीति की एक नयी परत उजागर की है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय न्याय और राजनीतिक सुरक्षा के बीच के जटिल संतुलन को भी सामने रखा है। सामान्य रूप से किसी राष्ट्राध्यक्ष की उड़ान की मार्ग योजना केवल भौगोलिक या मौसम संबंधी कारणों पर आधारित होती है, लेकिन नेतन्याहू के मामले में यह स्पष्ट रूप से कानूनी जोखिम प्रबंधन का संकेत देती है। ICC द्वारा जारी गिरफ्तारी वारंट और कुछ यूरोपीय देशों की निगरानी, नेतन्याहू को पारंपरिक हवाई मार्ग अपनाने से रोकती हैं। यह घटना अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उच्च पदस्थ नेताओं के लिए कानून और सुरक्षा की असमान चुनौतियों को दर्शाती है।
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इसके अलावा, फिलिस्तीनी राज्य की मान्यता को लेकर हाल के यूरोपीय कदमों ने नेतन्याहू की विदेश नीति को चुनौती दी है। यह दिखाता है कि इज़राइल की पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय छवि और उसकी राजनीतिक चालें अब वैश्विक मान्यता और न्याय के संस्थानों के दबाव के अंतर्गत हैं। साथ ही स्पेन और अन्य देशों द्वारा ICC की जांच का समर्थन और फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता देना, इस बात का संकेत है कि यूरोप में अब इज़राइल के सैन्य और राजनीतिक फैसलों की मौखिक और कानूनी आलोचना बढ़ रही है। नेतन्याहू का न्यूयॉर्क यात्रा मार्ग और उसका कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र और व्हाइट हाउस में उनकी कूटनीतिक सक्रियता, इस तनावपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में इज़राइल की रणनीतिक चुनौतियों और जोखिम प्रबंधन की कहानी कहता है। संक्षेप में कहा जाये तो यह यात्रा केवल एक भौगोलिक यात्रा नहीं, बल्कि राजनीतिक और कानूनी जटिलताओं से भरी कूटनीतिक चुनौती का प्रतीक बन गई है।
हम आपको यह भी बता दें कि इजराइल के प्रधानमंत्री से मुलाकात से पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का एक बयान इस समय खासा चर्चा का विषय बना हुआ है। दरअसल इस सवाल पर कि क्या वह इज़राइल को वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा करने की अनुमति देंगे, ट्रंप ने साफ़ तौर पर जवाब दिया: “अब बहुत हो गया।” इज़राइल के उस सुझाव के बारे में पूछे जाने पर कि वह इस क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर नियंत्रण कर सकता है, ट्रम्प ने दोहराया: “मैं इसे अनुमति नहीं दूँगा। ऐसा नहीं होने वाला है।” ओवल ऑफिस में पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने कहा, “मैं इज़राइल को वेस्ट बैंक को जोड़ने की अनुमति नहीं दूँगा। नहीं। मैं अनुमति नहीं दूँगा। ऐसा नहीं होने वाला है।”
बहरहाल, ट्रंप का यह बयान उन दुर्लभ अवसरों में से एक है जब उन्होंने नेतन्याहू से अलग रुख अपनाया। ट्रंप ने अक्सर हर बात पर इज़राइल का समर्थन ही किया है। हम आपको बता दें कि वेस्ट बैंक में लगभग 30 लाख फिलिस्तीनी रहते हैं, साथ ही लगभग 5 लाख इज़राइली बस्तियों में निवास करते हैं, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत अवैध माना जाता है। नेतन्याहू, अपने राष्ट्रवादी गठबंधन सहयोगियों के दबाव में फिलिस्तीनी राज्य की मांगों का विरोध कर रहे हैं और बस्तियों का विस्तार कर रहे हैं। ऐसे में ट्रम्प का यह बयान इज़राइल और अमेरिका के बीच ऐतिहासिक नज़दीकी को देखते हुए बेहद महत्वपूर्ण है। ट्रम्प का यह रुख फिलिस्तीनी प्रशासन और अरब देशों के लिए रणनीतिक समर्थन का संकेत है, जिससे शांति वार्ता और संघर्ष समाधान की संभावना मजबूत हो सकती है।