Saturday, December 20, 2025
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Vishwakhabram: Taliban की बर्बरता का नया शिकार बना Ariana Cinema, बुलडोजर से सिनेमाई स्मृति मिटाई गयी

काबुल की सांस्कृतिक पहचान माने जाने वाले ऐतिहासिक ‘एरियाना सिनेमा’ को अब जमींदोज़ किया जा रहा है। हम आपको बता दें कि दशकों तक काबुल के फिल्म प्रेमियों की धड़कन रहा यह सिनेमा अब एक शॉपिंग मॉल के लिए उजाड़ा जा रहा है। मीडिया में सामने आये दृश्यों में देखा गया कि बुलडोज़र एरियाना की दीवारों को तोड़ रहा था। 1960 के दशक में बना एरियाना सिनेमा अफगानिस्तान के सांस्कृतिक इतिहास का अहम स्तंभ रहा है। 1992 से 1996 के बीच चले भीषण गृहयुद्ध में इसे लूटा गया और लगभग नष्ट कर दिया गया था। लेकिन 2004 में फ्रांस के नेतृत्व में हुए एक पुनर्निर्माण प्रयास के बाद यह फिर से खुला और काबुल की सांस्कृतिक जिंदगी में नई जान फूंकी गई।
हालांकि, 2021 में तालिबान की वापसी के साथ ही अफगानिस्तान की सांस्कृतिक दुनिया पर अंधकार छा गया। तालिबान की इस्लामी क़ानून की कठोर व्याख्या के तहत फिल्मों, संगीत और अन्य मनोरंजन गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। एरियाना सिनेमा को कभी-कभार तालिबानी प्रचार फिल्में दिखाने के लिए इस्तेमाल किया गया, लेकिन आखिरकार इसे पूरी तरह बंद कर दिया गया।

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गुरुवार को सिनेमा स्थल पर लगे एक बैनर में लिखा था कि यहां एक आधुनिक बाजार बनाया जाएगा। लेकिन इस तथाकथित आधुनिकता ने काबुल के नागरिकों के दिल तोड़ दिए हैं। 65 वर्षीय एक काबुल निवासी महिला ने मीडिया से कहा कि एरियाना सिनेमा के टूटने की खबर ने मेरा दिल चकनाचूर कर दिया। हमारी इससे जुड़ी बहुत सारी अच्छी यादें थीं। उन्होंने बताया कि 1970 के दशक में यहां भारतीय और ईरानी फिल्में दिखाई जाती थीं। बाद में रूसी, अंग्रेज़ी, फ्रांसीसी और अन्य यूरोपीय फिल्मों का प्रदर्शन भी होने लगा। उन्होंने कहा कि यहां क्रांतिकारी फिल्में दिखाई जाती थीं, जो लोगों के संघर्ष को दर्शाती थीं। दर्शक उन्हें जुनून के साथ देखते थे।
वहीं फ्रांसीसी-अफगान लेखक और फिल्मकार अतिक रहिमी, जिनकी पहली फिल्म 2004 में एरियाना में दिखाई गई थी, वह भी इस खबर से स्तब्ध हैं। उन्होंने कहा कि एरियाना कोई खंडहर नहीं था जिसे तोड़ा जाए, बल्कि एक स्मृति थी जिसे जीवित रखा जाना चाहिए था। उन्होंने कहा कि यह एक बार गृहयुद्ध में नष्ट हुआ था। इस बार और भी बुरा है कि इसे ‘आधुनिकता’ के नाम पर मिटाया गया है। अतिक रहिमी ने कहा कि जब मेरी फिल्म एरियाना में चल रही थी, तब हमें एक पल के लिए लगा था कि संस्कृति बर्बरता के बावजूद जीवित रह सकती है। किसी सिनेमा को ढहा देना भविष्य का निर्माण नहीं है। हम आपको बता दें कि एरियाना अकेला नहीं है। काबुल का एक और सिनेमाघर ‘पार्क सिनेमा’ भी पहले ही ढहाया जा चुका है और वहां भी शॉपिंग मॉल बनाया जा रहा है।
हम आपको बता दें कि 2004 में एरियाना में हुए पुनर्निर्माण कार्य की देखरेख फ्रांसीसी वास्तुकार फ्रेडरिक नामूर और जीन-मार्क लालो ने की थी। इस परियोजना को फ्रांसीसी फिल्म निर्देशक क्लॉड लेलूश के नेतृत्व वाले एक संगठन ने वित्तपोषित किया था।
देखा जाये तो एरियाना सिनेमा का विध्वंस सिर्फ एक इमारत का गिरना नहीं है, यह अफगानिस्तान की संस्कृति पर चलाया गया बुलडोज़र है। यह उस देश की सांस्कृतिक स्मृति को मिटाने की कोशिश है, जो पहले ही दशकों के युद्ध, कट्टरता और हिंसा से छलनी हो चुका है। तालिबान जिस आधुनिकता की बात कर रहा है, वह दरअसल कंक्रीट की दीवारों में कैद एक सांस्कृतिक शून्यता है। सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं होता, वह समाज का आईना होता है। एरियाना उन दिनों का गवाह था जब काबुल दुनिया से जुड़ा हुआ था। जब भारतीय, ईरानी, यूरोपीय और रूसी फिल्मों के जरिए अफगान समाज संवाद करता था, सपने देखता था, सवाल पूछता था। आज उसी संवाद को मॉल की दुकानों और बंद दरवाजों के पीछे दफन कर दिया गया है।
तालिबान का यह कदम साफ संकेत देता है कि उसे संस्कृति से नहीं, नियंत्रण से मतलब है। जहां फिल्में होंगी, वहां विचार होंगे। जहां विचार होंगे, वहां सवाल उठेंगे। और सवाल किसी भी कट्टर सत्ता को सबसे ज्यादा डराते हैं। इसलिए सिनेमा हटाओ, संगीत मिटाओ, किताबें बंद करो और उसकी जगह बाजार खड़ा कर दो। देखा जाये तो यह बाजार लोगों को उपभोक्ता तो बना सकता है, नागरिक नहीं।
सबसे विडंबनापूर्ण बात यह है कि जिस एरियाना को गृहयुद्ध भी पूरी तरह खत्म नहीं कर सका, उसे अब आधुनिकता के नाम पर मिटा दिया गया। यह साबित करता है कि बंदूक से ज्यादा खतरनाक होती है वैचारिक तानाशाही। युद्ध में इमारतें गिरती हैं, लेकिन कट्टरता में स्मृतियां मारी जाती हैं।
बहरहाल, एरियाना का गिरना पूरी दुनिया के लिए चेतावनी है। यह बताता है कि अगर संस्कृति की रक्षा नहीं की गई, तो विकास का हर दावा खोखला होगा। मॉल खड़े हो सकते हैं, लेकिन वे इतिहास नहीं रचते। सिनेमा टूट सकता है, लेकिन उसकी यादें जिंदा रहेंगी और शायद एक दिन वही यादें फिर से किसी एरियाना को जन्म देंगी।
-नीरज कुमार दुबे
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