जो लोग सोचते हैं कि देश संविधान से नहीं बल्कि शरिया कानून से चलेगा, उनको बड़ा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि ‘काजी कोर्ट’, ‘दारुल कजा कोर्ट’ और ‘शरिया कोर्ट’ को संविधान में कोई कानूनी दर्जा या मान्यता नहीं है और उनके द्वारा जारी फतवा सहित उनकी कोई भी घोषणा किसी पर बाध्यकारी नहीं है और लागू नहीं की जा सकती। हम आपको बता दें कि जस्टिस सुधांशु धूलिया और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा कि 2014 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने शरिया अदालतों की कानूनी स्थिति के मुद्दे को सुलझा दिया था। अदालत ने एक मुस्लिम महिला की भरण-पोषण याचिका को अनुमति देते हुए 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के निष्कर्षों को दोहराया भी। हम आपको बता दें कि अपने पति से अलग रह रही महिला ने तलाकनामा प्राप्त करने के लिए ‘दारुल कजा कोर्ट’ का हवाला दिया था।
इस मामले पर सुनवाई करते हुए पीठ ने कहा, “काजी की अदालत, (दारुल कजा) काजियात की अदालत, शरिया अदालत आदि, चाहे किसी भी नाम से पुकारे जाएं, कानून में उनकी कोई मान्यता नहीं है। जैसा कि विश्व लोचन मदन (मामले) में उल्लेख किया गया है।” अदालत ने कहा कि ऐसे निकायों द्वारा कोई भी घोषणा/निर्णय, चाहे किसी भी नाम से पुकारा जाए, किसी पर भी बाध्यकारी नहीं है और किसी भी बलपूर्वक उपाय का सहारा लेकर लागू नहीं किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि ऐसी घोषणा/निर्णय कानून की नजर में तभी टिक सकता है जब प्रभावित पक्ष उस घोषणा/निर्णय को उस पर अमल करके या उसे स्वीकार करके स्वीकार करें और जब ऐसी कार्रवाई किसी अन्य कानून के साथ टकराव न पैदा करे। अदालत ने कहा फिर भी, ऐसी घोषणा/निर्णय, सबसे अच्छी स्थिति में केवल उन पक्षों के बीच ही वैध होगा जो उस पर अमल करना/स्वीकार करना चाहते हैं, न कि किसी तीसरे पक्ष के बीच।” अदालत ने कहा कि इस मामले में पत्नी ने भरण-पोषण पाने के लिए पारिवारिक न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का आह्वान किया था जिसे इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया था कि यह पति और पत्नी दोनों की दूसरी शादी थी और वह खुद अलग रहने के लिए जिम्मेदार थी।
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पारिवारिक न्यायालय और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेशों को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायालय समाज को नैतिकता और आचार-विचार पर उपदेश देने वाली संस्था नहीं है। हम आपको बता दें कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के लिए दायर अपने आवेदन में अपीलकर्ता ने तर्क दिया था कि प्रतिवादी संख्या 2 (पति) ने उसके साथ क्रूरता की है क्योंकि वह मोटरसाइकिल और 50,000 रुपये की उसकी मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं थी। इस पहलू पर पारिवारिक न्यायालय ने कहा कि चूंकि यह उनकी दूसरी शादी थी, इसलिए उसके द्वारा दहेज की मांग की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि वह अपने घर को फिर से बसाने की कोशिश कर रहा होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पारिवारिक न्यायालय द्वारा इस तरह का तर्क/अवलोकन कानून के सिद्धांतों से अनजान है और केवल अनुमान पर आधारित है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा अब से पारिवारिक न्यायालय को नागराथिनम बनाम राज्य मामले में की गई टिप्पणी को ध्यान में रखना चाहिए कि ‘न्यायालय समाज को नैतिकता और आचार-विचार पर उपदेश देने वाली संस्था नहीं है।’ अदालत ने कहा कि पारिवारिक न्यायालय यह नहीं मान सकता कि दोनों पक्षों द्वारा दूसरी शादी करने पर दहेज की मांग नहीं की जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय ने पत्नी को 4,000 रुपये मासिक गुजारा भत्ता देने का आदेश भी दिया।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश इस मायने में भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कुछ वर्षों पहले मुस्लिम मामलों पर निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस्लामी कानूनों के अनुरूप मुद्दों को सुलझाने के लिए देश के सभी जिलों में दारुल-कजा (शरिया अदालतें) खोलने की योजना बनाई थी। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा था कि हमारी योजना देश के हर जिले में एक ऐसी अदालत खोलने की है। बोर्ड ने कहा था कि दारुल-कजा का उद्देश्य अन्य अदालतों में जाने की बजाय शरीयत कानूनों के आलोक में मामलों को सुलझाना है। बोर्ड ने वकीलों, जजों और आम लोगों को शरिया कानून के बारे में जागरूक करने के उद्देश्य से अपनी तफहीम-ए-शरीयत (टीईएस) समिति को भी सक्रिय किया था।