ऐसा प्रतीत होता है कि बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती की भतीजों के साथ नहीं बनती। आकाश आनंद को बसपा में सभी पदों से मुक्त करने से पहले मायावती अखिलेश यादव को भी झटका दे चुकी हैं। हम आपको याद दिला दें कि अखिलेश यादव मायावती को बुआजी कहते हैं। उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनावों में बुआ मायावती से गठबंधन करने के लिए अपने पिता मुलायम सिंह यादव को भी मना लिया था। लेकिन बसपा और सपा के गठबंधन ने अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं किया तो मायावती ने भतीजे अखिलेश यादव का साथ छोड़ दिया। इसके बाद 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उन्हें आगे बढ़ाया लेकिन ऐन चुनावों के बीच ही उन्होंने आकाश आनंद के पर कतर दिये थे। हम आपको याद दिला दें कि मायावती के उत्तराधिकारी के नाते आकाश आनंद ने जब लोकसभा चुनाव प्रचार में धुआंधार रैलिया करनी शुरू की थीं तो उन्हें सुनने के लिए बड़ी भीड़ उमड़ रही थी और मीडिया भी उन्हें खास तवज्जो देने लगा था। उस समय आकाश आनंद ने एक रैली के दौरान हिंसा भड़काने जैसा बयान दिया तो मायावती ने उन पर कड़ी कार्रवाई करते हुए उन्हें परिपक्व होने तक घर बिठाने का निर्णय कर लिया। देखा जाये तो आकाश आनंद ने जो कहा था वह गलत था लेकिन चुनावी रैलियों के दौरान विभिन्न दलों के नेता आकाश आनंद से भी ज्यादा बढ़-चढ़कर भड़काऊ भाषण दे रहे थे।
मायावती ने आकाश आनंद को, उनके ससुर को या अन्य किसी को पार्टी से क्यों निकाला, इसके असल कारणों को वह खुद ही बेहतर तरीके से जानती होंगी। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि वह जिस तरह से अपनी पार्टी को चला रही हैं उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह नहीं चाहतीं कि उनका कोई प्रत्याशी चुनाव जीते या उनकी पार्टी सरकार बनाये। राहुल गांधी ने हाल ही में सही कहा था कि मायावती पता नहीं क्यों पूरी ताकत से चुनाव नहीं लड़तीं।
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देखा जाये तो बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती एक समय उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाती थीं लेकिन समय ने ऐसी करवट बदली कि अब बसपा सिर्फ वोट कटवा पार्टी बन कर रह गयी है। अपनी शर्तों पर राजनीति करतीं रहीं मायावती की पार्टी का उत्तर प्रदेश में मात्र एक विधायक है जबकि कभी यहां उनके पास पूर्ण बहुमत हुआ करता था। मायावती ने चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री का पद संभाला लेकिन आज वह अपनी पार्टी को नहीं संभाल पा रही हैं। चुनाव विधानसभा के हों या लोकसभा के, मायावती और बसपा जिस बेमन से चुनाव लड़ते हैं उससे आरोप लगता है कि वह भाजपा की बी टीम हैं। जब अन्य दलों की तीन-चार दर्जन रैलियां हो जाती हैं तब मायावती प्रचार के लिए निकलती हैं।
इसके अलावा, यह भी देखने को मिला है कि हाल के वर्षों में खासकर उत्तर प्रदेश में विधानसभा और लोकसभा के उपचुनावों के समय बसपा ने कई जगह ऐसे उम्मीदवार दिये जोकि विपक्षी मतों का विभाजन करवा कर भाजपा की जीत का मार्ग प्रशस्त कर सके। पिछले साल संपन्न लोकसभा चुनावों से पहले मायावती को विपक्षी इंडिया गठबंधन में शामिल होने का न्यौता दिया गया था लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया था। उत्तर प्रदेश में जिस तरह इंडिया गठबंधन को अच्छी खासी सफलता मिली उससे प्रतीत होता है कि यदि मायावती ने इंडिया गठबंधन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता तो भाजपा को और भी नीचे लाया जा सकता था। मायावती ने जब इंडिया गठबंधन में शामिल नहीं होकर अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय किया था तब भी कहा गया था कि ऐसा वह भाजपा के दबाव में कर रही हैं। राहुल गांधी ने हाल ही में रायबरेली दौरे के दौरान एक बार फिर कहा था कि उन्हें पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में मायावती की अगुवाई वाली बहुजन समाज पार्टी के इंडिया गठबंधन में शामिल नहीं होने से निराशा हुई थी।
राहुल गांधी के बयान पर मायावती ने हालांकि तगड़ा पलटवार करते हुए लंबा-चौड़ा बयान जारी कर दिया था लेकिन बसपा मुखिया उस सच्चाई से इंकार नहीं कर सकतीं कि बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में भले 2024 के चुनाव में एक भी लोकसभा सीट नहीं जीती हो लेकिन उसने 16 सीटों पर दूसरों का खेल बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभाई थी। 16 सीटों पर बसपा को जितने वोट मिले थे वो मुख्य प्रतिद्वंद्वियों की हार और जीत के अंतर से ज्यादा थे। हम आपको बता दें कि यह सभी 16 सीटें एनडीए के खाते में गयी थीं। इनमें से 14 सीटें भाजपा के पास, एक सीट राष्ट्रीय लोक दल के पास और एक सीट अपना दल (सोनेलाल) के पास गयी थी। कल्पना कीजिये कि यदि मायावती के उम्मीदवार मैदान में नहीं होते तो भाजपा को 240 की जगह 226 सीटें ही मिली होतीं और एनडीए का कुल आंकड़ा भी 278 सीटों का ही होता। उत्तर प्रदेश में भाजपा जो 33 सीटें लेकर आई, यदि मायावती के उम्मीदवार नहीं होते तो यह नंबर 19 हो सकता था। मायावती के कारण इंडिया गठबंधन के खाते में आने से जो सीटें रह गयीं उनमें अकबरपुर, अलीगढ़, अमरोहा, बांसगांव, भदोही, बिजनौर, देवरिया, फर्रुखाबाद, फतेहपुर सीकरी, हरदोई, मेरठ, मिर्जापुर, मिश्रिख, फूलपुर, शाहजहांपुर और उन्नाव सीटें शामिल हैं। बात सिर्फ लोकसभा चुनावों की ही नहीं है, साल 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान भी निचले स्तर तक यह संदेश पहुँचाया गया था कि मायावती ने अपने वोटबैंक को भाजपा की मदद करने के लिए कहा है। हालांकि इस संदेश की सत्यता प्रमाणित नहीं हो पाई थी लेकिन इसने भाजपा को भारी लाभ पहुँचाया था।
बहरहाल, बसपा के वोट बैंक में तीन फीसदी की गिरावट, लोकसभा चुनावों में पार्टी का शून्य पर सिमटना, ज्यादातर बसपा उम्मीदवारों की जमानत जब्त होना और बसपा के सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले की हवा निकलना दर्शाता है कि यह पार्टी पतन की ओर जा रही है। लोकसभा चुनाव परिणामों ने दर्शाया था कि बसपा का कोर वोट बैंक दलित और जाटव अब इंडिया गठबंधन की ओर जा रहा है। मुसलमान उनसे पहले ही छिटक चुका है। खैर… मायावती भले मोह माया से परे जाकर अब पार्टी हित पर ध्यान देने की बात कह रही हैं लेकिन सिर्फ इस तरह की बातों से पार्टी वापस नहीं उभरेगी। मायावती को समझना होगा कि सिर्फ कॉऑर्डिनेटर बदलने से या भतीजे को हटा कर भाई को जिम्मेदारी सौंप कर उनकी पार्टी मजबूत नहीं होगी। मायावती जब तक खुद मैदान में नहीं उतरेंगी तब तक बसपा काडर घर से बाहर नहीं निकलेगा। बंद कमरों की बैठकों से कभी किसी पार्टी में जान नहीं आ पाती यह बात मायावती को समझनी होगी।